Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 17
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: प्रस्तावना नरकाधिकारः समय, आवलिका, मूहूर्त, दिवस, अहोरात्र, पक्ष, मास, संवत्सर, युग, पल्य, सागर, उत्सर्पिणी और अवसर्पिर्णी तथा पुद्गलपरावर्त्त इत्यादिक काल विभक्ति है । भाव विभक्ति, जीवभाव और अजीवभाव के भेद से दो प्रकार की है। इनमें जीवभाव विभक्ति, औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, पारिणामिक और सन्निपातिक भेद से छः प्रकार की है। उक्त भाव विभक्तिओं में औदयिक भाव, गति, कषाय, लिङ्ग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान असंयत, असिद्ध, लेश्या, ये क्रमशः चार, चार, तीन, एक, एक, एक, एक और छः भेद से २१ प्रकार का है । तथा औपशमिक भाव, सम्यक्त्व और चारित्र भेद से दो प्रकार का है। क्षायिक भाव, सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य्य भेद से नव प्रकार का है । क्षायोपशमिक भाव, ज्ञान, अज्ञान, दर्शन और दान आदि लब्धियाँ क्रमशः चार, तीन तीन और पाँच तथा सम्यक्त्व, चारित्र, और संयमासंयम भेद के क्रम से अठारह प्रकार का है । पारिणामिक भाव, जीवों का भव्यत्व और अभव्यत्व आदि रूप है । सान्निपातिक भाव, द्विक आदि भेद से छब्बीस प्रकार का है । परन्तु इनमें छः भेद ही संभव हैं । यही गतिभेद से पन्द्रह प्रकार का है। अजीव भाव की विभक्ति, मूर्त्तपदार्थों का वर्ण सुगन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान का परिणाम है तथा अमूर्त पदार्थ की गति स्थिति, अवगाहन और वर्त्तन आदिक है ||६४|| यहाँ समस्तपद नरक विभक्ति है, नरक के विभाग को नरक विभक्ति कहते हैं, उसका वर्णन नियुक्तिकार करते हैं । नरक के जीव, तीव्र वेदना को उत्पन्न करनेवाले शीत-उष्ण रूप पृथिवी के शीत और उष्ण स्पर्श का अनुभव करते हैं । उस स्पर्श की विशेषता बतलाते हैं- वह शीत और उष्णस्पर्श किसी देवता आदि से शान्त करने योग्य नहीं, किन्तु वह (चिकित्सा करने योग्य भी नहीं है) दूसरे से अचिकित्स्य है । इस प्रकार दूसरे से मिटाने के अयोग्य पृथिवी के स्पर्श को नरक के जीव अनुभव करते हैं, यह स्पर्श का अनुभव तो उपलक्षण है, इसलिए नारकी जीव एकान्त रूप से बुरे तथा जिसकी उपमा योग्य कोई पदार्थ नहीं ऐसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्दों का अनुभव करते हैं । तथा नरकपाल जो पन्द्रह प्रकार के परमाधार्मिक हैं। उनके द्वारा किये हुए मुद्गर, तलवार और कुन्त आदि का प्रहार तथा आरा के द्वारा चीरा जाना और कुम्भीपाक आदि के द्वारा वध का अनुभव करते हैं । पहले की रत्न, शर्करा और वालुका नामक तीन भूमिओं में अपने किये हुए कर्मों का फल भोगनेवाले नरक के जीव रक्षक रहित होकर चिरकालतक यमपालों के द्वारा दुःख भोगते हैं । शेष पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमः प्रभा और महातमः प्रभा नामक चार भूमिओं में परमाधार्मिक नरकपालों के बिना भी जीव अपने आप अपने किये हुए कर्म के फल स्वरूप तीव्र वेदना को भोगते हैं तथा परस्पर एक दूसरे पर ईर्ष्या करके दुःख देते हैं || ६५ || अब नियुक्तिकार प्रथम तीन नरकों में जो परमाधार्मिक दुःख देते हैं, उनका नाम बताने के लिए कहते हैं । दो गाथाओं का स्पष्ट अर्थ है । वे अम्ब इत्यादिक परमाधार्मिक, जैसी वेदना उत्पन्न करते हैं प्रायः अन्वर्थ संज्ञा (अर्थ के अनुसार नाम) होने के कारण उनका वैसा ही नाम जानना चाहिए । जो जैसी वेदना तथा परस्पर दुःख उत्पन्न करता है, उसे दिखाने के लिए नियुक्तिकार कहते हैं उन नरकपालों में अम्ब नामवाले परमाधार्मिक अपने भवन से नरकावास में जाकर क्रीड़ापूर्वक शरण रहित नारक जीवों को कुत्ते की तरह शूल आदि के प्रहार से पीड़ित करते हुए एक स्थान से दूसरे स्थान में फेंक देते हैं, तथा अनाथ उन नारकीजीवों को इधर-उधर घूमाते हैं, तथा आकाश में फेंककर फिर गिरते हुए उस नारकी को मुद्गर आदि के द्वारा हनन करते हैं एवं शूल से वेध करते हैं तथा गला पकड़कर पृथिवी पर पटक देते हैं; और नीचे मुखवाले उनको ऊपर ऊठाकर आकाश तल में छोड़ देते हैं, इस प्रकार के दुःखों से नरकभूमि में नारकी जीवों को वे कष्ट देते हैं। पहले मुद्गर वगैरह से मारे हुए फिर तलवार आदि से हनन किये हुए ऐसे मूर्च्छित नारकी जीवों को नरक भूमि में वे परमाधार्मिक कर्प्पणी ( छेदनेवाला अस्त्र विशेष) के द्वारा छेदन करते हैं तथा इधर-उधर चीरते हैं । इस प्रकार चीरते हुए वे नरकपाल नारकी जीवों को मूँग की दाल के समान कर देते हैं तथा बीच में चीरे हुए नारकी जीवों को फिर खण्ड-खण्ड करते हैं, यह दुःख अम्बर्षिनामक असुरकुमार नरक भूमि में देते हैं । उन पुण्यहीन, तीव्र असाता वेदनीय के उदय में वर्तमान नारकी जीवों को श्याम नामवाले परमाधार्मिक, यह दुःख देते हैं, जैसे कि- अङ्ग और उपाङ्गों का छेदन तथा पर्वत पर से नीचे वज्रभूमि में पटकना, एवं शूल २९९

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