Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 15
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः प्रस्तावना नरकाधिकारः पत्रधनुर्नामानो नरकपाला असिपत्रवनं बीभत्सं कृत्वा तत्र छायार्थिनः समागतान् नारकान् वराकान् अस्यादिभिः पाटयन्ति, तथा 'कोष्ठनासिकाकरचरणदशनस्तनस्फिगूरुबाहूनां छेदनभेदनशातनादीनि विकुर्वितवाताहृतचलिततरुपातितासिपत्रादिना कुर्वन्तीति, तदुक्तम्“छिल्लपादभुजस्कन्धाशिछलकर्णीष्ठनासिकाः । भिन्नतालुशिरोमेण्द्रा, भिन्नाक्षिहृदयोदराः ||१||" किञ्चान्यत्- कुम्भिनामानो नरकपाला नारकान्नरकेषु व्यवस्थितान् निघ्नन्ति, तथा पाचयन्ति, क्वेति दर्शयति'कुम्भीषु' उष्ट्रिकाकृतिषु तथा 'पचनेषु' कडिल्लकाकृतिषु तथा 'लौहीषु' आयसभाजनविशेषेषु कन्दुलोहिकुम्भीषु कन्दुकानामिव अयोमयीषु कुम्भीषु-कोष्ठिकाकृतिषु एवमादिभाजनविशेषेषु पाचयन्ति । तथा-वालुकाख्याः परमाधार्मिका नारकानत्राणांस्तप्तवालुकाभृतभाजने चणकानिव तडतडित्ति स्फुटतः भज्जन्ति भृज्जन्ति-पचन्ति, क्व ? इत्याहकदम्बपुष्पाकृतिवालुका कदम्बवालुका तस्याः पृष्ठम्-उपरितलं तस्मिन् पातयित्वा अम्बरतले च लोलयन्तीति । किञ्चान्यत्- वैतरणीनामानो नरकपाला वैतरणी नदी विकुर्वन्ति, सा च पूयरुधिरकेशास्थिवाहिनी महाभयानका कलकलायमानजलश्रोता तस्यां च क्षारोष्णजलायामतीव बीभत्सदर्शनायां नारकान् प्रवाहयन्तीति । तथा- खरस्वराख्यास्तु परमाधार्मिका नारकानेवं कदर्थयन्ति, तद्यथा- क्रकचपातैर्मध्यं मध्येन स्तम्भमिव सूत्रपातानुसारेण कल्पयन्तिपाटयन्ति, तथा परशुभिश्च तानेव नारकान् 'परस्परम्' अन्योऽन्यं तक्षयन्ति सर्वशो देहावयवापनयनेन तनून् कारयन्ति, तथा 'शामलीं' वज्रमयभीषणकण्टकाकुलां खरस्वरै रारटतो नारकानारोहयन्ति पुनरारूढानाकर्षयन्तीति । अपिचमहाघोषाभिधाना भवनपत्यसुराधमविशेषाः परमाधार्मिका व्याधा इव परपीडोत्पादनेनैवातुलं हर्षमुद्वहन्तः क्रीडया नानाविधैरुपायै रकान् कदर्थयन्ति, तांश्च भीतान् प्रपलायमानान् मृगानिव 'समन्ततः' सामस्त्येन 'तत्रैव' पीडोत्पादनस्थाने 'निरुम्भन्ति' प्रतिबन्धन्ति 'पशून्' बस्तादिकान् यथा पशुवधे समुपस्थिते नश्यतस्तद्वधकाः प्रतिबध्नन्त्येवं तत्र नरकावासे नारकानिति ॥६६-८२॥ गतो नामनिष्पन्ननिक्षेपः, अधुना सूत्रानुगमे अस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम् - || अब पांचवा नरक विभक्त्यध्ययन प्रारम्भ किया जाता है | टीकार्थ -नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से नरक शब्द के छ: निक्षेप होते हैं, इनमें सरल होने के कारण नाम और स्थापना को छोड़कर द्रव्य नरक के विषय में नियुक्तिकार कहते हैं- द्रव्य नरक आगम से और नोआगम से होने के कारण दो प्रकार का हैं। इनमें जो पुरुष नरक को जानता है परन्तु उसमें उपयोग नहीं रखता है, वह आगम से 'द्रव्यनरक' है । नो आगम से द्रव्यनरक, ज्ञ शरीर और भव्य शरीर से अतिरिक्त इसी लोक में मनुष्यभव अथवा तिर्यग् भव में अशुभ कर्म करने के कारण जो प्राणी अशुभ हैं, जैसे कालकशौकरिकादिक आदि वे द्रव्य नरक हैं । अथवा जो कोई चारक (जेलखाना) आदि बुरे स्थान है अथवा जो नरक के समान वेदनायें हैं, वे सब द्रव्य नरक कहलाते हैं । अथवा कर्मद्रव्य और नोकर्मद्रव्य भेद से द्रव्यनरक दो प्रकार का है। उनमें जो नरकवेदनीय कर्म बाँधे जा चुके हैं, वे एकभविक, बद्धायुष्क, और अभिमुखनामगोत्र के आश्रय से द्रव्यनरक है । नो कर्मद्रव्य नरक तो इसी लोक में अशुभ रूप, रस, गन्ध, वर्ण, शब्द और स्पर्श हैं । क्षेत्र नरक नरकों का स्थान है, वह चौरासीलाख संख्यावाले काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान नाम वाले नरकों का विशिष्ट भूमि भाग है । काल नरक वह है, जहाँ जितनी स्थिति है । जो जीव नरक की आयु भोगते हैं, वे भाव नरक हैं। तथा नरक के योग्य कर्म के उदय को भाव नरक कहते हैं । आशय यह है कि- नरक में रहनेवाले जीव और नरक की आयु के उदय से उत्पन्न असाता वेदनीय आदि कर्म के उदयवाले जीव. ये दोनों ही 'भाव नरक' कहलाते हैं। इस प्रकार, परमअधार्मिको द्वारा किया हुआ आरा से शरीर का दारण (चीरना) और कुम्भीपाक आदि का दुःख तथा परस्पर उदीरणा से उत्पन्न स्वाभाविक असह्य तीव्र नरक दुःख को सुनकर अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुष को नरक गमन से रोकनेवाला तथा स्वर्ग और मोक्ष प्राप्ति का कारण स्वरूप संयम के अनुष्ठान में दूसरे कर्तव्यों को छोड़कर प्रयत्न करना चाहिए ॥६२-६३॥ अब विभक्ति पद का निक्षेप बताने के 1. कण्ठोष्ठ० प्र०। 2. पूतौ स्फिजौ कटि प्रोथो हैमः । २९७

Loading...

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 364