Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 16
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशः प्रस्तावना लिए नियुक्तिकार कहते हैं नरकाधिकारः नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव भेद से विभक्ति के छः निक्षेप होते हैं । इनमें जिस किसी चित्त आदि द्रव्य का विभक्ति नाम रखते हैं, वह नाम विभक्ति है। जैसे कि- सु आदि आठ विभक्ति हैं तथा तिप् आदि भी विभक्ति हैं । जहाँ वे ही विभक्तियां धातु अथवा प्रातिपदिक के उत्तर स्थापन की जाती हैं, अथवा पुस्तक और पन्नों के ऊपर लिखी जाती हैं, वे स्थापना विभक्ति कही जाती हैं । जीव और अजीव भेद से द्रव्य विभक्ति (विभाग) दो प्रकार की है। इनमें भी जीव विभक्ति सांसारिक और असांसारिक भेद से दो प्रकार की है । इनमें भी असांसारिक जीव विभक्ति, द्रव्य और कालभेद से दो प्रकार की है, उसमें द्रव्यरूप से असांसारिक जीव विभक्ति, तीर्थसिद्ध, अतीर्थसिद्ध आदि भेद से पन्द्रह प्रकार की है । काल से असांसारिक जीव विभक्ति, प्रथमसमयसिद्ध आदि भेद से अनेक प्रकार की है। सांसारिक जीव विभक्ति, इन्द्रिय, जाति और भव भेद से तीन प्रकार की है। उनमें इन्द्रिय विभक्ति, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय भेद से पाँच प्रकार की है। जाति विभक्ति पृथ्वी, जल, तेज, वायु, वनस्पति और त्रस भेद से छ प्रकार की है, भव विभक्ति नारक, तिर्य्यञ्च, मनुष्य और अमर भेद से चार प्रकार की है। अजीव द्रव्य विभक्ति, रूपी और अरूपी द्रव्य के भेद से दो प्रकार की है । उनमें रूपी द्रव्य विभक्ति चार प्रकार की है, जैसे कि- स्कन्ध, स्कन्धदेश स्कन्धप्रदेश और परमाणुपुद्गल । अरूपी द्रव्य विभक्ति, दश प्रकार की है जैसे कि- धर्मास्तिकाय, धर्मास्तिकाय का देश और प्रदेश इसी तरह अधर्म और आकाश के भी प्रत्येक के तीन, तीन भेद करने चाहिए तथा दशवाँ अद्धासमय, इस प्रकार अरूपी द्रव्य की विभक्ति दश प्रकार की है । क्षेत्र विभक्ति चार प्रकार की होती है जैसे कि- स्थान, दिशा, द्रव्य और स्वामित्व । इनमें स्थान के हिसाब से ऊपर-नीचे और तिरच्छे विभाग में रहा हुआ यह लोक कमर पर दोनों हाथ रखे हुए नाट्यशाला में स्थित पुरुष के समान समझना चाहिए। एवं अधोलोक विभक्ति, रत्नप्रभा आदि सात नरक की भूमि समझनी चाहिए । उसमें भी सीमन्तक आदि बड़े नरकों के मध्य रहे हुए फूलमाला की तरह गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण नरकों का स्वरूप जानना चाहिए । तिर्य्यग्लोक की विभक्ति, जम्बूद्वीप, लवणसमुद्र, धातकीखण्ड, कालोदधिसमुद्र, इत्यादि क्रमशः द्विगुण द्विगुण बड़े होने से द्वीप, सागर और स्वयम्भूरमण पर्य्यन्तों का स्वरूप जो बताया गया है वह समझना चाहिए । ऊपर-ऊपर रहनेवाले सौधर्मा आदि बारह देवलोक, नव ग्रैवेयक और पाँच महाविमान ये ऊर्ध्वलोक की विभक्ति हैं । उनमें भी बड़े-बड़े विमानों के मध्य में स्थित फूलमाला की तरह गोल, त्रिकोण और चतुष्कोण विमानों का स्वरूप जो शास्त्र में वर्णित है, वह जानना चाहिए। दिशा के आश्रय से पूर्वदिशा में स्थित क्षेत्र ही क्षेत्र की विभक्ति है, इसी तरह दूसरी दिशाओं में स्थित शालिक्षेत्र, क्षेत्र की विभक्ति हैं । द्रव्य के आश्रय से शालिक्षेत्र आदि का ग्रहण है । स्वामी के आश्रय से देवदत्त का क्षेत्र अथवा यज्ञदत्त का क्षेत्र इत्यादि क्षेत्र विभक्ति समझनी चाहिए । अथवा आर्य्य और अनार्य्य के भेद से क्षेत्र विभक्ति दो प्रकार की है। उनमें भी साढे पच्चीस देशों से उपलक्षित राजगृह और मगध आदि आर्य्यक्षेत्र हैं। मगध में राजगृह और अङ्ग में चम्पा, वन में ताम्रलिप्ति, कलिङ्ग में काञ्चनपुर और काशी में वाराणसी । (१) कोशल में साकेत, कुरु में गजपुर, कुशार्त में सैरिक, पञ्चाल में काम्पिल्य, जङ्गला में अहिच्छत्र, सुराष्ट्र में द्वारवती, विदेह में मिथिला, वत्स में कौशाम्बी, साण्डिल्य में नन्दीपुर, मलय में भद्रिलपुर, वच्छ में वैराट, वरण में अच्छा, दशार्ण में मृगावती, चेदिक में शुक्तिमती, सिन्धु सौवीर में वीतभय, शूरसेन में मथुरा, [भंग देश में पावापुरी] पापा में भंगनगरी, पुरी में मासा, कुणाला में श्रावस्ति, लाटदेश में कोटीवर्ष, एवं केकय देश के अर्ध भाग में श्वेताम्बिका नगरी ये आर्य्यदेश हैं । इन्ही देशों में जिनवरों की और चक्रवर्ती, रामकृष्ण की उत्पत्ति हुई है । धर्मज्ञान रहित अनार्य्य क्षेत्र अनेक प्रकार के हैं, जैसे कि - शक, यवन, शबर, बर्बर, काय, मुरुड, दुष्ट, गौड़ पक्कणिक, आख्याक, हुण, रोम, पारसख, सखासिका, द्विबल, चलौस, बुक्कस, भिल्ल, आन्ध्र, पुलिन्द्र क्रौञ्चभ्रमर, रुक, क्रौञ्च, चीन, चंचुक, मालव, द्रमिल, कुल, केकय, किरात, हयमुख, खरमुख, गजमुख, तुरगमुख, मेढमुख, हयकर्ण, गजकर्ण, तथा दूसरे बहुत से अनार्य्य देश हैं । उस देश के रहनेवाले लोग पापी, चण्डदण्डवाले अनार्य्य, घृणा रहित, अनुकम्पा रहित होते हैं, वे स्वप्न में भी धर्म के अक्षर को भी नहीं जानते हैं । काल विभक्ति, अतीत, अनागत और वर्तमान काल के भेद से तीन प्रकार की होती | अथवा एकान्त सुषमादि क्रम से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी से युक्त बारह आरावाला कालचक्र काल विभक्ति है । अथवा २९८

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