Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 19
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा १-२ नरकाधिकारः नारकी जीवों को खींच लेते हैं । तथा महाघोष नामवाले भवनपति अधम असुर विशेष परमाधार्मिक, दूसरे को पीड़ा उत्पन्न करके व्याध की तरह परम आनन्द को प्राप्त होते हैं, वे अपनी क्रीड़ा के लिए नाना प्रकार के उपायों से नारकी जीवों को पीडा देते हैं। वे नारकी जीव डरकर जब मग की तरह इधर-उधर भागने लगते हैं तब वे उन्हें चारो तर्फ से घेरकर उसी पीड़ा के स्थान मे रोक लेते हैं। जैसे पशुवध के समय इधर-उधर भागते हुए पशुओं को पशुवध करनेवाले रोक लेते हैं, इसी तरह वे परमाधार्मिक नारकी जीवों को नरक में रोक लेते हैं ॥६६८२।। नामनिक्षेप समाप्त हुआ । अब सूत्रानुगम में अस्खलित आदि गुण के साथ सूत्र का उच्चारण करना चाहिए, वह सूत्र यह है - पुच्छिस्सऽहं केवलियं महेसिं, कहं भितावा णरगा पुरत्था ? । अजाणओ मे मुणि बूहि जाणं, कहं नु बाला नरयं उविंति ? ॥१॥ छाया - पृष्ट्वानहं केवलिनं महर्षि, कथमभितापाः नरकाः पुरस्तात् । अजानतो मे मुने । बूहि नानन्, कथं नु बालाः नरकमुपयान्ति ॥ अन्वयार्थ - (अहं) मैंने (पुरत्था) पहले (केवलियं) केवलज्ञानी (महेसिं) महर्षि महावीर स्वामी से (पुच्छिस्स) पूच्छा था कि (णरगा कहं भितावा) नरक में कैसी पीड़ा होती है ? (मुणि जाणं) हे मुने! आप इसे जानते हैं अतः (अजाणओ मे बूहि) न जाननेवाले मुझको कहिए (बाला) मूर्ख जीव (कहं नु) किस तरह (नरयं) नरक को (उविंति) प्राप्त होते हैं। भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी आदि से कहते हैं कि- मैंने केवलज्ञानी महर्षि महावीर स्वामी से पूर्व समय में यह पूछा था कि- नरक में कैसी पीड़ा भोगनी पड़ती है, हे भगवन् ! मैं इस बात को नहीं जानता है किन्तु आप जानते हैं इसलिए आप मुझको यह बतलाइए तथा यह भी कहिए कि अज्ञानी जीव किस प्रकार नरक को प्राप्त होते हैं। टीका -जम्बूस्वामिना सुधर्मस्वामी पृष्टः, तद्यथा- भगवन् ! किंभूता नरकाः ? कैर्वा कर्मभिरसुमतां तेषूत्पादः? कीदृश्यो वा तत्रत्या वेदना ? इत्येवं पृष्टः सुधर्मस्वाम्याह- यदेतद्भवताऽहं पृष्टस्तदेतद् 'केवलिनम्' अतीतानागतवर्तमानसूक्ष्मव्यवहितपदार्थवेदिनं 'महर्षिम्' उग्रतपश्चरणकारिणमनुकूलप्रतिकूलोपसर्गसहिष्णुं श्रीमन्महावीरवर्धमानस्वामिनं पुरस्तात्पूर्वं पृष्टवानहमस्मि, यथा 'कथं' किम्भूता अभितापान्विता 'नरका' नरकावासा भवन्तीत्येतदजानतो 'मे' मम हे मुने ! 'जानन्' सर्वमेव केवलज्ञानेनावगच्छन् 'ब्रूहि' कथय, 'कथं नु' केन प्रकारेण किमनुष्ठायिनो नुरिति वितर्के 'बाला' अज्ञा हिताहितप्राप्तिपरिहारविवेकरहितास्तेषु नरकेषूप-सामीप्येन तद्योग्यकर्मोपादानतया 'यान्ति' गच्छन्ति किम्भूताश्च तत्र गतानां वेदनाः प्रादुष्ष्यन्तीत्येतच्चाहं 'पृष्टवानिति ॥१॥ तथा - टीकार्थ - जम्बूस्वामी ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा कि- हे भगवन् ! नरकभूमि कैसी है और किन कर्मों के अनुष्ठान से जीवों की उनमें उत्पत्ति होती है तथा नरक में कैसी पीड़ा भोगनी पड़ती है ? । इस प्रकार पूछे हुए श्री सुर्धमा स्वामी कहने लगे कि आपने जो पूछा है सो मैंने भी केवलज्ञानी अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान, सूक्ष्म और व्यवहित पदार्थों को जाननेवाले, उग्र तपस्वी, अनुकूल तथा प्रतिकूल उपसगों को सहन करनेवाले, महर्षि श्री महावीर वर्धमान स्वामी से पहले पूछा था । मैंने पूछा था कि- "नरकभूमि कैसे दुःखों से युक्त होती है।" मैं इस बात को नहीं जानता हूँ परन्तु हे मुनीश्वर ! आप केवलज्ञान से इस बात को जानते हैं, इसलिए मुझको बतलाइए तथा यह भी बताइए कि हित की प्राप्ति और अहित के त्याग के ज्ञान से रहित मूर्ख जीव कैसे कर्म करके नरक में जाते हैं तथा नरक में गये हुए प्राणियों को कैसी वेदनायें भोगनी पड़ती हैं । यह मैंने पूछा था ॥१॥ एवं मए पुढे महाणुभावे, इणमोऽब्बवी कासवे आसुपन्ने । पवेदइस्सं दुहमट्ठदुग्गं, आदीणियं दुक्कडियं पुरत्था ॥२॥ ३०१

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