Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti
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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकः गाथा ३
नरकाधिकारः - यथाप्रतिज्ञातमाह -
- जैसी प्रतिज्ञा की वैसा कहते हैंजे केइ बाला इह जीवियट्ठी, पावाई कम्माई करंति रुद्दा । ते घोररूवे तमिसंधयारे, तिव्वाभितावे नरए पडंति
॥३॥ छाया - ये केऽपि बाला इह जीवितार्थिनः पापानि कर्माणि कुर्वन्ति रोद्राः ।
ते घोररूपे तमिसान्धकारे, तीव्राभितापे नरके पतन्ति ॥ अन्वयार्थ - (इह) इस लोक में (रुद्दा) प्राणियों को भय उत्पन्न करनेवाले (जे केइ बाला) जो अज्ञानी जीव (जीवियट्ठी) अपने जीवन के लिए (पावाई कम्माई करंति) हिंसादि पाप कर्म करते हैं (ते) वे (घोररूवे) घोररूपवाले (तमिसंधयारे) महान् अन्धकार से युक्त (तिव्वामितावे) तथा तीव्र तापवाले (नरए) नरक में (पडंति) गिरते हैं।
भावार्थ- प्राणियों को भय देनेवाले जो अज्ञानी जीव अपने जीवन की रक्षा के लिए दूसरे प्राणियों की हिंसा आदि पाप कर्म करते हैं, वे तीव्र ताप तथा घोर अन्धकार युक्त महा दुःखद नरक में गिरते हैं ।
टीका - ये केचन महारम्भपरिग्रहपञ्चेन्द्रियवधपिशितभक्षणादिके सावद्यानुष्ठाने प्रवृत्ताः 'बाला' अज्ञा रागद्वेषोत्कटास्तिर्यग्मनुष्या 'इह' अस्मिन्संसारे असंयमजीवितार्थिनः पापोपादानभूतानि 'कर्माणि' अनुष्ठानानि 'रौद्राः' प्राणिनां भयोत्पादकत्वेन भयानकाः हिंसानतादीनि कर्माणि कर्वन्ति, त एवम्भतास्तीव्रपापोदयवर्तिनो 'घोररूपे अत्यन्तभयानके 'तमिसंधयारे'त्ति बहलतमोऽन्धकारे यत्रात्मापि नोपलभ्यते चक्षुषा केवलमवधिनापि मन्दमन्दमुलूका इवाह्नि पश्यन्ति, तथा चागमः- "1किण्हलेसे णं भंते ! णेरइए किण्हलेस्सं णेरइअं पणिहाए ओहिणा सव्वओ समंता समभिलोएमाणे केवइयं खेत्तं जाणई ? केवइयं खेत्तं पासइ ? गोयमा ! णो बहुययरं खेत्तं जाणइ णो बहुययरं खेत्तं पासइ, इत्तरियमेव खेत्तं जाणइ इत्तरियमेव खेत्तं पासइ" इत्यादि तथा तीव्रो-दुःसहः खदिरागारमहाराशितापादनन्तगुणोऽभितापःसन्तापो यस्मिन् स तीव्राभितापः तस्मिन् एवम्भूते नरके बहुवेदने अपरित्यक्तविषयाभिष्वङ्गाः स्वकृतकर्मगुरवः पतन्ति, तत्र च नानारूपा वेदनाः समनुभवन्ति, तथा चोक्तम्"अच्छडियविसयसुहो पडइ अविज्झायसिहिसिहाणिवहे । संसारोदहिवलयामुहंमि दुक्खागरे निरए||१|| 'पायकंतीरत्थलमुहकुहरुच्छलियरुहिरगंडूसे | करवत्तुकत्तदुहाविरिकविविईण्णदेहढे ॥२॥ जंतंतरभिज्जंतुच्छलतसंसद्दभरियदिसिविवरे । डज्झंतुफिडियसमुच्छलंतसीसट्ठिसंघाए ||३|| 'मुक्ककंदकडाहुक्कढंतदुक्कयकयंतकम्मंते । सूलविभिल्लुक्खिन्तुद्धदेहणिटुंतपब्भारे ||४||
सबंधयारदुग्गंधबंधणायारदुदरकिलेसे । भिन्नकरचरणसंकररुहिरवसादुग्गमप्पवहे ||५|| गिद्धमुहणिहउक्खित्तबंधणोमुन्दकंविरकबंधे12 । दढगहियतत्तसंडासयग्गविसमुक्खुडियजीहे ॥६॥ 13तिक्खंकुसग्गकड्डियकंटयरुक्खग्गजज्जरसरीरे । निमिसंतरंपि दुल्लहसोक्खेऽवक्खेवदुक्खंमि ||७|| 14इय भीसणंमि णिरए पडंति जे विविहसत्तवहनिरया । सच्चब्भट्ठा य नरा जयंमि कयपावसंघाया। "
इत्यादि ॥३।। किञ्चान्यत् - 1. कृष्णलेश्यो भदन्त ! नैरयिकः कृष्णलेश्यं नैरयिकं प्रणिधायावधिना सर्वतः समन्तात् समभिलोकयन् कियत्क्षेत्रं जानाति कियत्क्षेत्रं पश्यति ?, गौतम!
नो बहुतरं क्षेत्रं जानाति नो बहुतरं क्षेत्रं पश्यति इत्वरमेव क्षेत्रं जानाति इत्वरमेव क्षेत्रं पश्यति । 2. अत्यक्तविषयसुखः पतति अविध्यातशिखिशिखानिवहे संसारोदधिवलयामुखे दुःखाकरे निरये ॥१॥ 3. महे प्र०14. पादाक्रान्तोरस्थलमुखकुहरोच्छलितरुधिरगण्डूषे करपत्रोत्कृत्तद्विधीभागविदीर्णदहार्थे ।।२।। 5. न्नु० प्र० । 6. यन्त्रान्तर्भिद्यदुच्छलत्संशब्दभृतदिग्विवरे दह्यमानोत्स्फिटितोच्छीर्षास्थिसंघाते ॥३॥ 7. मुक्ताक्रन्दकटाहोत्कट्यमानदुष्कृतकृतान्तकौन्ते शूलविभिन्नोत्क्षिप्तोर्ध्वदहनिष्ठप्राग्भारे ॥४॥ 8. शब्दान्धकारदुर्गन्धबन्धनागारदुर्धरक्लेशे । भिन्नकरचरणसंकररुधिरवसादुर्गमप्रवाहे ॥५॥ 9. गृध्रमुखनिर्दयोत्क्षिप्तबन्धनोन्मूर्धक्रन्दत्कबन्धे । दृढगृहीततप्तसंदशकाग्रविषमोत्पाटितजिह्वे ॥६।। 10. ०बंधणे प्र० । 11. कंदिर० प्र० । 12. अधोमुखक्रन्दन् कबन्धो यत्र वि० प्र० । 13. तीक्ष्णाङ्कुशाग्रकर्षितकण्टकवृक्षाग्रजर्जरशरीरे । निमेषान्तरमपि दुर्लभसौख्येऽव्याक्षेपदुःखे ।।७।। 14. इति भीषणे निरये ये विविधसत्त्ववधनिरताः । सत्यभ्रष्टाच नरा जगति कृतपापसंघाताः ॥८॥
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