Book Title: Sutrakritanga Sutra Part 02
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 20
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा २ छाया - एवं मया पृष्टो महानुभाव, इदमब्रवीत् काश्यप आशुप्रज्ञः । प्रवेदयिष्यामि दुःखमर्थदुर्गमादीनिकं दुष्कृतिकं पुरस्तात् ॥ अन्वयार्थ - ( एवं ) इस प्रकार (मए) मेरे द्वारा (पुट्ठे) पूछे हुए ( महाणुभावे) बड़े माहात्म्यवाले (कासवे ) काश्यपगोत्र में उत्पन्न (आसुपन्ने) सब वस्तु में सदा उपयोग रखनेवाले भगवान् महावीर स्वामी ने ( इणमोऽब्बवी ) यह कहा कि (दुहमट्ठदुग्गं) नरक दुःखदायी है तथा असर्वज्ञ पुरुषों से अज्ञेय है (आदीणियं) वह अत्यन्त दीन जीवों का निवास स्थान है ( दुक्कडियं) उसमें पापी जीव निवास करते हैं (पुरत्था) यह आगे चलकर (पवेदइस्सं) हम बतायेंगे । नरकाधिकारः भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी आदि से कहते हैं कि इस प्रकार मेरे द्वारा पूछे हुए अतिशय माहात्म्यसम्पन्न, सब वस्तुओं में सदा उपयोग रखनेवाले, काश्यपगोत्र में उत्पन्न भगवान् महावीर स्वामी ने कहा कि- नरक स्थान बड़ा ही दुःखदायी और असर्वज्ञ जीवों से अज्ञेय है, वह पापी और दीन जीवों का निवास स्थान है, यह में आगे चलकर बताऊँगा । ३०२ टीका – 'एवम्' अनन्तरोक्तं, मया विनेयेनोपगम्य पृष्टो महांश्चतुस्त्रिंशदतिशयरूपोऽनुभावो - माहात्म्यं यस्य स तथा, प्रश्नोत्तरकालं च 'इदं' वक्ष्यमाणं, मो इति वाक्यालङ्गारे, केवलालोकेन परिज्ञाय मत्प्रश्ननिर्वचनम् 'अब्रवीत्' उक्तवान्, कोऽसौ ?- 'काश्यपो' वीरो वर्धमानस्वामी आशुप्रज्ञः सर्वत्र सदोपयोगात् स चैवं मया पृष्टो भगवानिदमाह- यथा यदेतद्भवता पृष्टस्तदहं 'प्रवेदयिष्यामि' कथयिष्याम्यग्रतो दत्तावधानः शृण्विति, तदेवाह - 'दुःखम्' इति नरकं दुःखहेतुत्वात् असदनुष्ठानं यदिवा - नरकावास एव दुःखयतीति दुःखं अथवा - असातावेदनीयोदयात् तीव्र पीडात्मकं दुःखमिति एतच्चार्थतः - परमार्थतो विचार्यमाणं 'दुर्गं' गहनं विषमं दुर्विज्ञेयं असर्वज्ञेन, तत्प्रतिपादकप्रमाणाभावादित्यभिप्राय:, यदिवा- 'दुहमट्ठदुग्गंति दुःखमेवार्थो यस्मिन् दुःखनिमित्तो वा दुःखप्रयोजनो वा स दुःखार्थो - नरकः, स च दुर्गे-विषमो दुरुत्तरत्वात् तं प्रतिपादयिष्ये, पुनरपि तमेव विशिनष्टि - आ-समन्ताद्दीनमादीनं तद्विद्यते यस्मिन् स आदीनिक:-अत्यन्तदीनसत्त्वाश्रयस्तथा दुष्टं कृतं दुष्कृतम् असदनुष्ठानं पापं वा तत्फलं वा असातावेदनीयोदयरूपं तद्विद्यते यस्मिन्स दुष्कृतिकस्तं, 'पुरस्ताद्' अग्रतः प्रतिपादयिष्ये, पाठान्तरं व 'दुक्कडिणं'ति दुष्कृतं विद्यते येषां ते दुष्कृतिनो - नारकास्तेषां सम्बन्धि चरितं 'पुरस्तात्' पूर्वस्मिन् जन्मनि नरकगतिगमनयोग्यं यत्कृतं तत्प्रतिपादयिष्य इति 11211 टीकार्थ श्री सुधर्मा स्वामी कहते हैं कि- मुझ शिष्य के द्वारा समीप में जाकर पूछे हुए चौंतीस अतिशय स्वरूप माहात्म्यवाले भगवान् ने यह कहा - प्रश्न करने के पश्चात् भगवान् ने आगे कहे अनुसार उत्तर दिया । 'मो' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है। भगवान् ने केवल ज्ञान के द्वारा सब बातों को जानकर मेरे प्रश्न का उत्तर दिया था । भगवान् कौन ? वह काश्यपगोत्रोत्पन्न वीर वर्धमान स्वामी हैं । वह आशुप्रज्ञ हैं क्योंकि वह सब वस्तुओं में सदा उपयोग रखते हैं । मेरे द्वारा पूछे हुए उन भगवान् ने यह कहा कि तुमने जो पूछा है सो मैं आगे चलकर बताऊंगा तुम सावधान होकर सुनो। वही कहते हैं- नरकभूमि दुःख का कारण और बूरे कर्मों का फल होने के कारण दुःखरूप है अथवा नरकभूमि, जीवों को दुःख देती है, इसलिए वह दुःखरूप है अथवा असातावेदनीय कर्म के उदय होने से नरकभूमि तीव्रपीड़ास्वरूप है, इसलिए वह दुःखरूप है, वस्तुतः विचार करने पर यह नरकभूमि, असर्वज्ञजीव के द्वारा दुर्विज्ञेय है क्योंकि नरक को सिद्ध करनेवाला कोई प्रमाण नहीं है, यह आशय है । अथवा नरकभूमि, केवल दुःख देने के लिए है, इसलिए वह दुःखार्थ है और उस भूमि को पार करना कठिन है, इसलिए वह दुर्ग है, उस नरकभूमि को मैं बताऊंगा । फिर भी शास्त्रकार नरकभूमि की विशेषता बतलाते हैं- जिसमें चारों ओर दीन जीव निवास करते हैं, ऐसी नरकभूमि है अर्थात् वह दीन प्राणियों का निवास स्थान है तथा उसमें बुरे कर्म, पाप अथवा पाप का फल असातावेदनीय विद्यमान रहता है, इसलिए नरकभूमि को दुष्कृतिक कहते हैं, यह मैं आगे चलकर बताऊंगा । यहाँ "दुक्कडिणं" यह पाठान्तर भी पाया जाता है, इसका अर्थ यह है कि नरक में निवास करनेवाले पापी जीवो ने नरक में भोग ने योग्य जो पूर्व जन्म में कर्म किये हैं, वे भी मैं बताऊंगा । 1. असर्वज्ञस्य नरकज्ञानकारकतादृश ज्ञानाभवात् । ---

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