Book Title: Sumitramantri Charitram
Author(s): Shubhshil Gani
Publisher: Hiralal Hansraj Pandit

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Page 6
________________ चरित्रं // 4 // सुमित्र इच्छामि धर्मकृत्येषु त्वां कारयितुमुद्यमम् / मामपि त्वं तु किं नाथ निषेधयसि तेषु हा // 12 // अर्थः-(१ तो) तमोने धर्मकार्योमा उद्यम कराववाने इच्छु छ, एवामां हे स्वामी! तमो तो उलटा अरेरे! मने पण ते धर्मकृत्यो में करतां केम अटकावो छो ? 12 // धर्मः किं विफलः स स्यायत्प्रसादेन धीधनैः / निर्विघ्नैः स्वर्गमोक्षाणामपि सौख्यमवाप्यते॥१३॥ अर्थः-जेनी कृपाथी विघ्नविनाज बुद्धिवानो स्वर्ग अने मोक्षन सुख पण मेळवी शके छे, ते धर्म शुं निष्फल थाय छे? 13 ___ अथोचे सचिवो राज्ञा मम ज्ञापय मन्त्रिप / विघ्नोच्छिच्याथ संपत्या प्रत्यक्ष धर्मजं फलम्॥१४॥ अर्थः-त्यारे राजाए मंत्रिने कह्यु के, हे मंत्रिश्वर! विघ्नोना विनाशपूर्वक संपत्ति आपनारुं धर्मनुं फल मने तुं प्रत्यक्ष देखाड इत्युक्तिभाजं राजानं सचिवस्तमुवाच सः / त्वं नाथोऽन्ये तु ते भृत्याः साक्षादेतद्वि तत्फलम्॥१५।। अर्थः-एम बोलता ते राजाने ते मंत्रीए का के, तमो स्वामी छो, अने बीजाओ तमारा नोकर छे, एज खरेखर साक्षात् ते धर्मनुज फल छे // 15 // ततोऽमात्यं जगौ राजा पाषाणे द्विदलीकृते / भवत्येकेन सोपानं द्वितीयेन तु देवता // 16 // तरिक तस्यैकदेशेन धर्मश्चक्रे परेण न / सिद्धा स्वभावाविश्वस्य भन्याभव्यव्यवस्थितिः॥१७॥ __अर्थ:-त्यारे राजाए मन्त्रिने कह्यु के एक पत्थरना बे टुकडा करीने, तेमना एक टुकडाथी पगथीयु कराय छे, अने बीजामांथी देवनी मूर्ति कराय छे, // 16 // त्यारे तेना एक टुकडाए | धर्म को हतो ? अने बीजे शुं न्होतो को ? माटे स्वभावधीज गज HorseKE

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