Book Title: Subhashit Sangrah
Author(s): Sukhsagar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 196
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१८९) अवगुण ढंके गुण लहे, न वदे निठुर वान । मानस रूपे देवता, निर्मल गुणनी खान ॥१३४३॥ घर नहि तो मठ बनाया, धंधा नहि तो फेरी । बेटा नहि तो चेला मुंडा, ऐसी माया गेरी ॥१३४४ ॥ ओछे नरके उदरमें, न रहे मोटी बात। आध सेर के पात्रमें, कैसे सेर समात ॥१३४५ ॥ समकित श्रद्धा अंक हे, और अंक सब शून्य । अंक जतन कर राखिये, शून्य शून्य दस गुण ॥ १३४६ ॥ हितकर मूढ रीझाइये, अति हित पंडित लोक । अर्ध दगध जड जीवको, विधव रिझावत जोग ।। १३४७॥ नयन श्रवण अरु नासिका, कर नहि करत करो। सुत वनिता परिवार को, अचरज कीसो रह्यो ॥ १३४८ ॥ जब तक तेरे पुन्यका, और पता नहि करार । तब लग गुणा माफ हे, अवगुण करो हजार ॥ १३४९ ॥ पापी दृष्टि जीवने, धर्म वचन न सुहाय । के ऊंचे के लडपडे के उठके घर जाय ॥१३५० ॥ नारी कपटकी कोथली नारी कपटकी खान । जे नारीके वस पड्या, ते न तयों संसार ॥१३५१ ॥ धर्म करत संसार सुख, धर्म करत नव निध। धर्म पंथ साधन विना, नर तिर्यच समान ॥१३५२ ॥ For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228