Book Title: Subhashit Sangrah
Author(s): Sukhsagar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar

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Page 200
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अनन्तरत्न अहं त्वं च अपदो दूरगामी अणोरणीयान् कुबेरपुरी अर्थागमो नित्य अश्वः शस्त्रं अर्थातुराणां न अन्तर्विशति भजायुद्धमृषि अनर्घमपि अनुकूले विधौ अव्याकरणमधीतं अन्यैः साकं अरावप्यु अलावं तिन्दुक अस्माकं बदरी श्रतिपरिचया असारे खलु अगस्ति तुल्या अद्यापि दुर्निवारं १३ www. kobatirth.org ( १९३ ) १३८ १४१ १४२ अमितगुणोऽपि १४३ १४३ १४४ १४८ १४९ १४९ १५० Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९१ १५२ १५२ १५३ १५३ १५४ १५४ १५५ १५५ १५५ १५६ अयश्चणक अलंकरोति हि अभूत् प्राची श्रस्य मूर्खस्य अखिलेषु विह अप्रतश्चतुरो अर्थस्य पुरुषो अकर्णमकरो अतिदानाद् अहो दुर्जन अन्नदानं महा अतिसमय अर्थनाशं मन अश्वमेधसहस्रं अद्रोहः सर्व अमृतं किरति अर्थी करोति अन्तः शाक्ता अवगुण ढंके श्रायुर्वृद्धिर्यशो For Private And Personal Use Only १५८ १५८ १९८ १६० १६१ १६१ १६२ १६२ १६३ १६५ १६६ १६६ १७१ १७४ १७६ १७६ १८३ १८३ १८६ १८९

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