Book Title: Stuti Tarangini Part 03
Author(s): Bhadrankarsuri
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan
View full book text
________________
संस्कृत विभाग-२ भामई आरत्तिअ. अवरकाहल-तूर-रवेण, चंदप्पह सुविहाण तुह जंपइ अवरवणेण ॥८॥ वेविलेविण पवर सिरखंड, मयणाहिसदिआ सरसघुणिसर सरायरंजिअ, समलिहइं तुम तणु विविह कुसुम पब्भार पुज्जिय, वरकालागुरुमीणसिउ मीसिअ धूव दहंति, पुष्पदंत सुविहाण तुह ते भव भमणि न हुति ॥९॥ निअविढत्तउ दविणविव्वेवि, करावई जिणभुवण-तुंग सिहर-गयणयल-पत्ततउ, पुणठावई बिंब तिहिं पाडिहेर लक्खणिई जुत्तर, तिनिकाल वंदणकरई गुरुवयणं निसुणंति, सीयल ते सुकयच्छनर जे सुविहाण भणं ति ॥१०॥ तिहिं घरंगणि रिद्धि वित्थार, सोहग्ग जय स कित्तिबहुल ताण आण नवि कोइ खंडइ, जे लीणा तुह वयणि भव-समुद्दतारण-तरंडइ, जीवदया-वरवय-सहिअ संझुत्ति सुअनाणि, सुविहाणं सेयंस तुह जंपई निसि अवसाणि ॥१०॥ लेविदप्पण लेविदप्पण निअविदपाण, सिंगारु सुकरविउट्टि कंत पच्चुसिपत्थह, ज्झाविण भवभयहरणि जिणह, भवणिक्खमण इकइच्छह, दाणसीलतवभावणाई बहुविह धम्मज्झाणु आयंनिवि भत्तिभरेण वासुपुज्ज सुविहाणं ॥१२॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446