Book Title: Stotra Chintamanistatha Prakrit Stotra Prakash
Author(s): Vijaypadmasuri
Publisher: Jain Granth Prakashak Sabha
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३०४
श्री विजयपद्मसूरिविरचितः
सच्चारित्ताहारो-पवयणजगणीउ लद्धचारित्ते ॥ ता संसज्झा नेहा-जत्तो चारित्तपुण्णफलं ।। १९ ॥ पंचासवपरिचाओ-चिंदियनिग्गहो कसायाण ॥ परिहारो गुत्तितिगं-सगदसभेएहिं चारित्तं ॥ २०॥ जयणा पुचपवित्ती-पसंसणिज्जा जिणत्तचारित्ते ।। जयणा महप्पहावा-वडइ धम्मं थिरं कुणए ॥२१॥ भेयतिगं जीवाणं-तत्थाविरया पमत्तचारित्ती ॥ अपमत्ता णिग्गंथा-विष्णेया पल्लदिटुंता ॥ २२ ॥ महपल्ले कोइ जहा-कुंभं खिवए विसोहए नालिं ।। एवमविरई बंधइ-बहु थोवं चेव निज्जरए ॥२३॥ एत्ताहे विवरीयं-पमत्तसंजयमुणीण विण्णेयं ॥ वह निज्जरंति थोवं-बंधते ते चरणजोगा ॥२४॥ बहु निज्जरति भव्वा-अपमत्ता किवि गोव बन्धेते ॥ एवं वियारिऊणं-जे भव्वा निम्मलं चरणं ॥ २५ ॥ साहंते पज्जंते-ते सग वापबग्गपुण्णमुह ॥ सुहझाणा पहसंता-समाहिमरणाउ पावेने ॥ २६ ॥ पत्तावसरो विक्खा-वहंति खेयं मसाणमोयगहं ॥ चिच्चा जीव ! भवता-संजमसंसाहणं कजं ॥२७॥ सारयजलयसमाणं-जीवियमिह चंचले पवपयत्थे ॥ आसीविसविससम्मा-विसया किपागफलतुल्ला ॥२८॥ उइया तत्थ रई णो-निरुवाहिपमोयदायगं चरणं ॥ भावित्तेवं चक्की-छखंडसामीवि हरिसाओ ॥२९॥

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