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जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का पारस्परिक प्रभाव
की गयी है और यज्ञ की सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है कि योगीजन संयमरूप अग्निरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके 'संकुचित होने', 'फैलने' आदि कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। आत्मविषयक संयम का नाम आत्म-संयम है, वही यहाँ योगाग्नि है । घृतादि चिकनी वस्तु प्रज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक - विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई ( धारणा - ध्यान समाधि रूप ) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में ( प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को ) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है । यही श्रमण परम्परा का हिन्दू - परम्परा को मुख्य अवदान था ।
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स्नान आदि के प्रति नया दृष्टिकोण
जैन विचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान, जो कि उस समय धर्म और नैतिक जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट ( तीर्थ ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है । इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है। " न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है । इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ ।
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इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम ही श्रेष्ठ है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि प्रति मास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप से दान नहीं करता, वरन् संयम का पालन करता है, व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है।" धम्मपद में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणा देकर प्रति मास यज्ञ करता जाय और
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