Book Title: Sramana 1992 01 Author(s): Ashok Kumar Singh Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi View full book textPage 4
________________ [ २ ] वरेप मानती है और जो एक विवेकवान् प्राणी के रूप में मनुष्य-जीवन का स्वतः साध्य है। अन्ततः पूर्णतावादी आत्मोपलब्धि को ही मूल्य मानते हैं और मूल्य के सम्बन्ध में एक व्यापक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। वस्तुतः मूल्य के सन्दर्भ में ये सभी दष्टिकोण किसी सीमा तक ऐकान्तिकता एवं अवान्तर कल्पना के दोष (Naturalistic Fallacy) से ग्रसित हैं। वास्तव में मूल्य एक अनैकान्तिक, व्यापक एवं बहु-आयामी प्रत्यय है, वह एक व्यवस्था है, एक संस्थान है, उसमें भौतिक और आध्यात्मिक, श्रेय और प्रेय, वांछित और वांछनीय, उच्च और निम्न, वासना और विवेक सभी समन्वित हैं । वे यथार्थ और आदर्श की खाई के लिए एक पुल का काम करते हैं । अतः उन्हें किसी ऐकान्तिक एवं निरपेक्ष दष्टिकोण के आधार पर परिभाषित नहीं किया जा सकता। मल्प एक नहीं, अनेक हैं और मूल्य-दृष्टियाँ भी अनेक हैं। अतः प्रत्येक मूल्य किसी दृष्टि विशेष के प्रकाश में ही आलोकित होता है। वस्तुतः मूल्यों की और मूल्य-दष्टियों की इस अनेकविधता और बहुआयामी प्रकृति को समझे बिना मूल्यों का सम्यक मूल्यांकन भी सम्भव नहीं हो सकता है। (३) मूल्यबोध को सापेक्षता मूल्य-बोध में मानवीय चेतना के विविध पहलू एक-दूसरे से संयोजित होते हैं। मूल्यांकन करने वाली चेतना भी बहुआयामी है, उसमें ज्ञान, भाव और संकल्प तीनों ही उपस्थित रहते हैं। विद्वानों ने इस बात को सम्यक प्रकार से न समझ कर ही मूल्यों के स्वरूप को समझने में भूल की है। यहाँ हमें दो बातों को ठीक प्रकार से समझ लेना होगा-एक तो यह कि सभी मूल्यों का मूल्यांकन चेतना के किसी एक ही पक्ष के द्वारा सम्भव नहीं है, दूसरे यह कि मानवीय चेतना के सभी पक्ष एक-दूसरे से पूर्णतया निरपेक्ष होकर कार्य नहीं करते हैं । यदि हम इन बातों की उपेक्षा करेंगे तो हमारा मूल्य-बोध अपूर्ण एवं एकांगी होगा । फिर भी मूल्य-दर्शन के इतिहास में ऐसी उपेक्षा की जाती रही है। एरेनफेल्स ने मूल्य को इच्छा (डिज़ायर) का विषय माना तो माइनांग ने उसे भावना (फोलिंग) का विषय बताया। पैरी ने उसे रुचि (इंट्रस्ट) का विषय मानकर मूल्यबोध में इच्छा और भावना का संयोग माना है। सारले ने उसे अनुमोदन (एप्रीसियेशन) का विषय मान कर उसमें ज्ञान और भावना का संयोग माना है। फिर भी ये सभी विचारक किसी सीमा तक एकांगिता के दोष से नहीं बच पाये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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