Book Title: Sramana 1992 01
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 3
________________ मूल्य और मूल्यबोध की सापेक्षता का सिद्धान्त (भारतीय और पाश्चात्य चिन्तन के सन्दर्भ में) -प्रो० सागरमल जैन मूल्य-दर्शन का उद्भव एवं विकास एक नवीन दार्शनिक प्रस्थान के रूप में मूल्य-दर्शन का विकास लोत्से, ब्रेन्टानो, एरनफेल्स, माइनांग, हार्टमन, अरबन, एवरेट, मैक्स शेलर आदि विचारकों की रचनाओं के माध्यम से १९वीं शताब्दी के अन्तिम चरण से प्रारम्भ होता है तथापि श्रेय एवं प्रेय के विवेक के रूप में. परम सुख की खोज के रूप में एवं पुरुषार्थ को विवेचना के रूप में मूल्य-बोध और मूल्य-मीमांसा के मूलभूत प्रश्नों की समीक्षा एवं तत्सम्बन्धो चिन्तन के बीज पूर्व एवं पश्चिम के प्राचीन दार्शनिक चिन्तन में भी उपलब्ध होते हैं। वस्तुतः मूल्य-बोध मानवीय प्रज्ञा के विकास के साथ हो प्रारम्भ होता है। अतः वह उतना ही प्राचीन है, जितना मानवीय प्रज्ञा का विकास । मूल्य-विषयक विचारविमर्श की यह धारा जहाँ भारत में श्रेष' एवं 'मोक्ष' को परम मूल्य मान कर आध्यात्मिकता की दिशा में गतिशील होती रही, वहीं पश्चिम में 'शुभ' एवं 'कल्याण' पर अधिक बल देकर ऐहिक, सामाजिक एवं बुद्धिवादी बनी रही। फिर भी अर्थ, काम और धर्म के त्रिवर्ग को स्वीकार कर न तो भारतीय विचारकों ने ऐहिक और सामाजिक जीवन के मूल्यों की उपेक्षा की है और न सत्य, शिव एवं सुन्दर के परम मल्यों को स्वीकार कर पश्चिम के विचारकों ने मूल्यों की आध्यात्मिक अवधारणा की उपेक्षा की है। (२) मूल्य का स्वरूप मूल्य क्या है ? इस प्रश्न के अभी तक अनेक उत्तर दिये गए हैंसुखवादी विचारपरम्परा के अनुसार, जो मनुष्य की किसी इच्छा की तृप्ति करता है अथवा जो सुखकर, रुचिकर एवं प्रिय है, वही मूल्य है। विकासवादियों के अनुसार जो जीवनरक्षक एवं संवर्द्धक है, वही मूल्य है। बुद्धिवादी कहते हैं कि मूल्य वह है जिसे मानवीय प्रज्ञा निरपेक्ष रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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