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सिरि भूवलय
किया जाए ? इन अंको से प्राप्त सांगत्य को साहित्य को इस पहेली को कैसे सुलझाया जाए? इस विषय पर विशेषतः ध्यान देना आवश्यक है।
यहां सभी भाषायें है, सभी शास्त्र भी यहाँ हैं । ऐसा कवि कहते है । रामायण, महाभारत, भगवद्गीता, वैद्यशास्त्र, आदि उदाहरण देतें हैं । एक स्थान पर कहते हैं यह जिन के द्वारा किया जाना वाले व्रत है । जब तीर्थंकर जिन बनते हैं तब 'समवसरण' जैसा एक व्रत करतें हैं । उस समवसरण की एक दिव्य ध्वनि है ऐसा कवि कहते है । यह एक आश्चर्यजनक विषय है ।
पशु, पक्षी, मनुष्य, मृग, गंधर्व, यक्ष इन सभी के समझ में आने की भाषा में तीर्थंकर, जिन उपदेश करते हैं । यह समवसरण सभा में सभी जीवियों को मिलाकर उपदेशित, उपदेश है । यहाँ कवि कहते है की मै जो कह रहा हूं वह दिव्यध्वनि' है । फिर कवि एक कदम आगे जाकर कहते है कि मै एक तीर्थंकर । कवि स्वयं तीर्थंकर होकर समवसरण में जिन जैसे उपदेश करते हैं वैसे मैने इस सिरिभूवलय को लिखा है, ऐसा कहते हैं ।
इस भूवलय' की बात कुछ स्वारस्यमय है । वेंकटाचलशास्त्रीजी के अभिप्राय में यलवभूरिसि' को विलोम क्रिया में पढे तो सिरिभूवलय' बन गया यह बात तो ठीक है लेकिन यह एक और अर्थ में है ऐसा लगता है । भूवलय' जैन सिद्धांत में एक पारिभाषिक शब्द है । भूसत्तायं धातु को रखकर यह शब्द रहा होगा । भू' का अर्थ, जो है वही अस्तित्व में रहे सभी प्राणियों को स्थान देना है। स्थल निर्देशवाची भूवलय' ऐसा हेमचंद कहते हैं । इसलिये यहां भू' का अर्थ भूमि नहीं है । वलम' का अर्थ, वृत्त या चक्र है । अनाव्यनंतोव विस्तीर्णहो वलयः ' अस्तित्व प्रक्रिया भूमि पर आदि - अंत्य का मेल है। पशु - प्राणियों का सहज क्रिया क्या है वही इस भूवलय में आता है।
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एक और स्वारस्य यह है कि रसवाद के विषय में कवि कहतें हैं। यह रसवाद का अर्थ आल्केमि' है, लोहे को सोना बनाना ही रसवाद, आल्केमि है शरीर रस कायरस भी एक है। काया को वज्रकाया बनाना। चाहे कोई बिमारी हो या बुढापा हो इसे रोकना हैं । सामान्य शरीर को वज्रकाया बनाना ही रसवाद है । परंतु कुमुदेंद हमें ज्ञात रसवाद को नहीं बताते हैं । जैन परिभाषा में इसे एक और अर्थ में कहते हैं । सभी तीर्थंकरों ने भी इसी रससिद्धि के लिये ही तप किया है ऐसा कवि कुमुदेंदु कहते हैं । यह एक आश्यर्यजनक बात है।
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