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.(४१) हो सिद्धांत शाखों का वास्तविक विनय, बन्तु स्वरूप एवं समाज हित समझना चाहिये । प्रस्तु
अब मागे के सूत्रों पर दृष्टि डालियेविदियादि जाव सत्समार पुढधीये णेरइया मिच्छाइट्टिटाणे सिया पन्जता सिया प्राग्जत्ता ।
(सूत्र ८२ पृष्ठ १५२ धवला) अर्थ-दूसरे नरक से लेकर सात नरक तक नारकी मिध्यादृष्टि पहले गुणस्थान को अपर्याप्त अवस्था में भी धारण करते है । पर्याप्त में भी करते हैं।
इस सूत्र की व्याख्या में धवनाकार कहते हैंअवस्तनोष षटसु पृथिवोत्र मिथ्यादृष्टीनामुत्पत्तेः सत्वात् ।
(पृष्ठ १०२ धवना) अर्थात-पहली पथ्वी को छोड़कर बाकी नीचे की बों पृथिवियों में मिध्यादृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं माः वहां परदूसरे से सातवें नरक तक के नारकियों की पर्याप्त अपर्याप्त दोनों भवस्थानों में पहला गुणस्थान होता है। यहां पर भी द्रव्यवेद (नारक शरीर) के माधार पर ही गुणधान का निरूपण किया गया है।
भागे के सूत्र में और भी सष्ट किया गया है। देखिये
सासण सम्माइटि सम्मामिच्छाइट्टि पसंजदसम्माइटिहाणे णियमा पञ्चता। (सूत्र ३ पृष्ठ १६२ धवल सिद्धांत)