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दिसम्बर २०१२
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सद्गुण खिंचे चले आते हैं। अविनीत व्यक्ति सड़े हुए कानों वाली कुतिया सदृश है, जो ठोकरें खाती है, अपमानित होती है। लोग उससे घृणा करते हैं वैसे ही अविनीत व्यक्ति सदा अपमानित होता है।
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विनय का तृतीय अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार। विनीत व्यक्ति गुरुजनों के समक्ष बहुत ही नम्र होकर रहता है । वह उन्हें नमस्कार करता है तथा अंजलिबद्ध होकर तथा कुछ झुककर खड़ा होता है। उसके प्रत्येक व्यवहार में विवेकयुक्त नम्रता रहती है। वह न गुरुजन के आसन से बहुत दूर बैठता है, न अधिक निकट बैठता है। वह इस मुद्रा में बैठता है जिसमें अहंकार न झलके वह गुरुजनों की आशालना नहीं करता। इस प्रकार वह नम्रतापूर्ण व्यवहार करता है भगवती, स्थानांग औपपातिक में विनय के सात प्रकार बताए गए हैं- १. ज्ञानविनय २. दर्शनविनय ३ चारित्रविनय ४ मनविनय ५. वचनविनय ६. कायविनय ७. लोकोपचारविनय ज्ञान, दर्शन और चारित्र को विनय कहा गया है, क्योंकि उनके द्वारा कर्मपुद्गलों का विनयन यानि विनाश होता है विनय का अर्थ यदि हम भक्ति और बहुमान करें तो ज्ञान दर्शन और चारित्र के प्रति भक्ति और बहुमान प्रदर्शित करना है जिस समाज और धर्म में ज्ञान और ज्ञानियों का सम्मान होता है, वह धर्म और समाज आगे बढता है ज्ञानी धर्म और समाज के नेत्र हैं। ज्ञानी के प्रति विनीत होने से धर्म और समाज में ज्ञान के प्रति आकर्षण बढता है। इतिहास साक्षी है कि यहूदी जाति विद्वानों का बड़ा सम्मान करती थी, उन्हें हर प्रकार की सुविधा प्रदान करती थी जिसके फलस्वरूप आइन्सटीन जैसा विश्वश्रुत वैज्ञानिक उस जाति में पैदा हुआ अनेक मूर्धन्य विद्वान, वैज्ञानिक और लेखक यहूदी जाति की देन है। अमेरिका और रूस में जो विज्ञान की अभूतपूर्व प्रगति हुई है उसका मूल कारण वहाँ पर वैज्ञानिकों एवं साहित्यकारों का सम्मान रहा है। भारत में भी प्राचीनकाल के राजा महाराजा, कवियों, साहित्यकारों एवं अन्य विद्वानों को तन, मन एवं धन से सम्मान करते थे जिससे विद्वान एकाग्रचित्त होकर साहित्य की उपासना करते थे। ज्ञानविनय के पाँच भेद औपपातिक में प्रतिपादित किये गए हैं। दर्शनविनय में साधक सम्यग्दृष्टि के प्रति विश्वास तथा आदरभाव प्रकट करता है। इस विनय के दो रूप है । १. शुश्रुषाविनय व २ अनाशातनाविनय । औपपातिक के अनुसार दर्शन विनय के भी अनेक भेद हैं देव, गुरु, धर्म आदि का अपमान हो, इस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिये आशालना का अर्थ ज्ञान आदि सद्गुणों की आय प्राप्ति के मार्ग को अवरुद्ध करना है।
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१. अर्हत्, २. सिद्ध, ३. जिन प्ररूपित धर्म, ४. आचार्य ५. उपाध्याय, ६. स्थविर, ७. कुल ८. गण, ९. संघ, १०. क्रिया, ११. गणि १२ ज्ञान, १३ ज्ञानी इन तेरह की आशातना न करना, भक्ति और गुण स्तुति करने से बावन अनाशासनाविनय के भेद प्रतिपादित हैं। सामायिक आदि पाँच चारित्र और चारित्रवान् के प्रति विनय करना चारित्रविनय है । अप्रशस्त प्रवृत्ति से मन को दूर रखकर मन से प्रशस्त करना मनोविनय है। सावध वचन की प्रवृत्ति न करना और वचन की निरवद्य व प्रशस्त प्रवृत्ति करना वचन विनय है। काया की प्रत्येक प्रवृत्ति में जागरूक रहना, चलना, उठना बैठना, सोना आदि सभी उपयोगपूर्वक करना प्रशस्तकाय विनय है। लोक व्यवहार की कुशलता जिस विनय से सहज रूप से उपलब्ध होती है वह लोकोपचार विनय है। उसके सात प्रकार हैं। गुरु आदि के सन्निकट रहना, गुरुजनों की इच्छानुसार कार्य करना, गुरु के कार्य में सहयोग करना, कृत उपकारों का स्मरण करना, उनके प्रति कृतज्ञ भाव रखकर उनके उपकार से ऋणमुक्त होने का प्रयास करना, रुग्ण श्रमण के लिये औषधि एवं पथ्य की गवेषणा करना, देश एवं काल को पहचान कर कार्य करना किसी के विरुद्ध आधरण न करना, इस प्रकार विनय की व्यापक पृष्ठभूमि है । यदि शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाए तो भी गुरु के प्रति उसके अन्तर्मन में वही श्रद्धा और भक्ति होनी चाहिये जो पूर्व में थी। जिन ज्ञानवान् से किंचित् भी ज्ञान प्राप्त किया जाय उसके प्रति सतत विनीत रहना चाहिये। जब शिष्य में विनय के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह गुरुओं का सहजरूप से स्नेहपात्र बन जाता है। अविनीत असंविभागी होता है। और जो असंविभागी होता है, उसका मोक्ष नहीं होता । कहा गया है चार प्रकार की समाधि होती हैं। १. विनयसमाधि २ श्रुतसमाधि, ३ तपसमाधि व ४. आचारसमाधि । आचार्य हरिभद्रसूरिजी ने समाधि का अर्थ आत्मा का हित सुख और स्वास्थ्य से किया है। विनय, श्रुत, तप और आचार के द्वारा आत्मा का हित होता है। इसलिये वह समाधि है । अगस्त्यसिंह स्थविर ने समारोपण तथा गुणों के समाधान अर्थात् स्थिरीकरण या स्थापन को समाधि कहा है। उनके अभिमतानुसार विनय, श्रुत, तप और आचार के समारोपण या उनके द्वारा होने वाले गुणों के समाधान को विनय समाधि श्रुतसमाधि तथा आचारसमाधि कहा गया है।
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जब भयंकर आँधी चलती है तब बड़े-बड़े वृक्ष धराशायी हो जाते हैं परन्तु घास, बेंत आदि को विशेष क्षति
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