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वि.सं.२०६९-मार्गशीर्ष नहीं पहुँचती है। इससे सिद्ध होता है कि जीवन जीने की कला नम्रता एवं विनय में है। जीवन में जो सुख और दुःख में साम्य भाव को धारण करते हुए विनम्र होता है वह जीवन में उन्नति कर सकता है। परन्तु जो धन-वैभव प्राप्त करके अहंकारी बन जाता है एवम संकट के समय में दीन-हीन होकर हतोत्साहित हो जाता है, वह जीवन में कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।
में भी कहा गया है - दम्भ का अन्त सदैव अहंकार होता है और अहंकारी आत्मा सदैव पतित होती है। नाश के पूर्व व्यक्ति अहंकारी हो जाता है, किन्तु प्रतिष्ठा हमेशा व्यक्ति को नम्रता ही प्रदान करती है। भारतीय नीतिकारो ने भी विद्या, विनय, सुख को परस्पर सहकारी माना है।
विद्या ददाति विनयं, विनयाद्याति पात्रताम। .
पात्रत्वात् धनमाप्नोति, धनात् धर्मः ततः सुखम् ।। विद्या विनय देती है अर्थात विद्या सम्पन्न व्यक्ति विनयशील होते हैं। विनय से पात्रता आती है। पात्रता से धन सम्पत्ति की प्राप्ति होती है। धन का सदुपयोग धार्मिक कार्यो में करने से धर्म की उपलब्धि होती है। जिससे सुख की प्राप्ति होती है।
जहाँ विनय सुख-समृद्धि और सम्मान आदि का श्रोत है। वहीं अविनय पतन, दुःख, विवाद आदि का कारण बनता है। वर्तमान युग में व्यक्ति थोड़ा धन, वैभव और ज्ञान को प्राप्त कर अहंकारी होता जा रहा है। पहले शिष्य गुरुजनों का विनय करता था परन्तु आज कहीं-कहीं गुरु शिष्य की उद्दण्डता, उच्छृखलता से भयभीत होकर उसका विनय कर रहें है। उसी प्रकार परिवार में बच्चे माता-पिता व अभिभावक का यथायोग्य विनय नहीं करते हैं। जिसके कारण घर, समाज, राष्ट्र, देश में सुख शान्ति का अभाव है। सर्वत्र भ्रष्टाचार, कलह, तनाव, झगड़ा, शीतयुद्ध परिलक्षित होते हैं। इसलिये वर्तमान काल की विद्या, सभ्यता, संस्कृति मानव के लिये वरदान स्वरूप न होकर अभिशापस्वरूप हो गयी है। नीतिकारों ने भी कहा है -
अविनीतस्य या विद्या, सा चिरं नैव तिष्ठति।।
मर्कटस्य गले बद्धा, मल्लीनां मालिका यथा ।। (सर्वो० श्लोक पृ० ५५६) अविनीत व्यक्ति की जो विद्या है, वह बंदर के गले में निबद्ध मालती की माला के समान है, जो चिरकाल तक नहीं ठहरती है।
जब वृक्ष में फूल आते हैं तो वह पहले की अपेक्षा नम्र हो जाता है। और जब फल लग जाते है तो और भी नम्र हो जाता है। इसी प्रकार जब व्यक्ति निर्गुण से गुणी, अज्ञानी से ज्ञानी, अधर्मी से धर्मात्मा बन जाता है। तब वह उत्तरोत्तर विनम्र होता जाता है। सत्पुरुष ऐश्वर्य प्राप्त होने पर नम्र हो जाते हैं। कहा भी गया है -
भवन्ति नम्रास्तरवा फलोद्गमैनर्वाम्बुभि मिविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धता: सत्पुरुषा समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ।। (नी० श० पृ १०६) किसी नगर में एक दानी रहता था। कभी कोई याचक उसके यहां से निराश नहीं लौटता था; परन्तु वह दानी दान के समय याचक की ओर न देखकर नीचे की ओर देखता रहता था। एक भिक्षुक ने जाकर दान माँगा। दाता ने उसे दान दे दिया। भिक्षुक ने फिर स्वर बदल कर माँगा। दाता ने दे दिया। तब याचक ने तीसरी और चौथी बार भी इसी तरह माँगा, दाता ने दे दिया। तब भिक्षुक बोला कि मैंने आपसे वाणी का स्वर बदल-बदल कर चार बार दान ले लिया और आपको ज्ञात नहीं हुआ। आप ऊपर दृष्टि क्यों नहीं रखते? यह सुनकर दाता ने मुस्कुराकर कहा- भाई दान देते समय मैं दुष्टि ऊपर नहीं कर सकता क्योंकि
देने वाला और है, देता है दिन रैन।
लोग भरम मुझ पर करे ताते नीचे नैन।। विश्व का इतिहास साक्षी है कि जिसने भी गर्व किया है उसका गर्व अनिवार्य रूप से खंडित हुआ है। कौरव, दुर्योधन, कंस, रावण, नेपोलियन, हिटलर आदि जितने भी अहंकारी पुरुष हुए हैं। उनका अहंकार चिरस्थायी नहीं रहा।
आणानिद्देसकरे, गुरुणमुववायकारए।
दंगियागारसंपन्ने, सेविणीए त्ति बुच्चई ।। (उ० सू०, अ.१, गा.-२) जो गुरुओं की आज्ञा का पालन करने वाला हो, गुरुओं के समीप बैठने वाला हो, उनके कार्य को करने तथा उनके इंगित और आकार को भली प्रकार जानने वाला हो, वह शिष्य विनयवान् कहा जाता है।
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