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दिसम्बर २०१२ इस गाथा में विनय-धर्म का स्वरूप उसके आधारभूत धर्मों के द्वारा प्रतिपादित किया गया है। यहाँ पर विनयधर्म और विनयवान शिष्य धर्मी हैं। अतः धर्म धर्मी का अभेद मानकर शिष्य के कर्तव्य का जो वर्णन है वही विनयधर्म का स्वरूप समझना चाहिये। विनय धर्म रूप कल्पवृक्ष के पोषण की मूल सामग्री आगमविहित आचार के सम्यग् अनुष्ठान में ही निहित है।
ल सिंचन क्रियाओं से वद्धि को प्राप्त होता हआ उत्तम वक्ष अपनी छाया और फल पुष्पादि से पथिक जनों के लिये एक अपूर्व विश्रान्ति का स्थान बन जाता है, ठीक इसी प्रकार शास्त्रानुसार आचरण में लाई जाने वाली विनय धर्म सम्बन्धी क्रियाएँ भी आत्मा के ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप स्वाभाविक गुणों में चमत्कारपूर्ण एक लोकोत्तर उत्कर्ष पैदा करके उसे विश्व विश्रान्ति का पूर्ण धाम बना देती है।
उत्तराध्ययनसूत्र में विनय के निम्नलिखित भेद-प्रभेद किये गए है। उदाहरणार्थ दो भेद- १. लौकिक विनय २. लोकोत्तर विनय । चार भेद- (१-३) ज्ञान-दर्शन-चारित्र विनय ४. लोकोपचार विनय ।
सात भेद- १. ज्ञानविनय २. दर्शनविनय ३. चारित्रविनय ४. मनविनय ५. वचन विनय ६. काय विनय ७. लोकोपचार विनय। विनय के अनुष्ठान की विधि ।
निस्सन्ते सियामुहरी, बुद्धाणं अन्तिए सया।
अट्ठजुत्ताणि सिक्खज्जा, निरट्ठाणि उ वज्जए।। विनम्र शिष्य का धर्म है कि वह सदा शान्त रहे, कभी क्रोध न करे, बिना विचार किये कभी न बोले, आचार्यों के समीप रहकर परमार्थ साधक तात्त्विक पदार्थों की शिक्षा ग्रहण करे और परमार्थशून्य कार्य में अमूल्य समय को न खोएँ।
बुद्धिमान शिष्य तो गुरुजनों के सहज कठोर शासन को भी पुत्र, भ्राता और सम्बन्धी जनों के शासन के समान हितकर समझता है और अविनीत शिष्य उसे दास को दी जाने वाली कठोर शिक्षा के समान अहितकर समझता है। इस सारे कथन का अभिप्राय यह है कि गुरुजनों के शासन करने पर बुद्धिमान शिष्य अपने मन में विचार करता है कि पिता हितबुद्धि से ही पुत्र को शिक्षा देता है। भाई इसीलिये भाई को समझाने बुझाने की चेष्टा करता है कि भाई के लिये उसके हृदय में स्नेह-सरिता की ऊर्मियाँ लहरा रही है। एक सम्बन्धी का अपने दूसरे सम्बन्धी को बोध देना भी उसके आन्तरिक स्नेह का ही द्योतक है। इसी प्रकार गुरुजनों का जो मेरे लिये यह सहज कठोर शासन है इसमें भी इनकी कपामयी हितकामना ही काम कर रही है। इसलिये गुरुजन जो कुछ भी कहते सुनते हैं वह मेरे ही भले के लिये है, इसमें इनका कोई स्वार्थ नहीं है। ऐसा विचार कर बुद्धिमान शिष्य गुरुजनों की इच्छानुकूल आचरण करते हुए अपनी आत्मा को मोक्षमार्ग का दृढ पथिक बना लेता है। जो पापदृष्टि मूर्ख शिष्य है उनका विचार इससे सर्वथा विपरीत होते हैं। वह गुरुजनों के शासन को हितकर एवं कल्याणप्रद समझने के बदले उसको एक निकष्ट प्रकार की भर्त्सना मानता है। उसके हृदय पर गुरुजनों के अनुशासन का विपरीत प्रभाव पड़ने से वह अपनी आत्मा में इस प्रकार का कुविचार उत्पन्न करता है कि इन गुरुओं का अब मेरे ऊपर बिल्कुल स्नेह नहीं रहा। ये तो स्नेह के बदले मेरे ऊपर अब द्वेष ही रखने लगे हैं। इसीलिये ये रात-दिन मुझे कोसते रहते हैं। मेरे साथ इनका जो व्यवहार है वह बहुत ही तुच्छ है। इनकी दृष्टि में मैं एक तुच्छ दास तुल्य हूँ। जैसे कठोर हृदय वाले मालिक को अपने नौकर पर दया नहीं आती। इसीलिये वह उसके छोटे से अपराध पर भी आपे से बाहर होकर उसे कठोर ताड़ना करने लग जाता है, इसीप्रकार इनके हृदय में भी मेरे ऊपर किसी प्रकार की करुणा नहीं है। इनकी कठोर शिक्षा अब मुझसे सहन नहीं होती। इसप्रकार की विपरीत भावनाओं से वह मूर्ख शिष्य अपनी आत्मा को मलिन करता हुआ उसे सन्मार्ग की ओर ले जाने के बदले कुमार्ग का ही यात्री बना देता है।
यहाँ भी विचारभेद या दृष्टिभेद ही काम कर रहा है। विनीत शिष्य ने गुरुजनों के शासन में रही हुई उनकी आन्तरिक हितकामना को परख लिया है और अविनीत शिष्य को गुरुजनों के शासन में काम करने वाली हितकामना का आभास नहीं होता। इसलिये फलश्रुति में भी विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है। विनीत को तो वह शिक्षा मोक्षमार्ग का पथिक बनाती है और अविनीत को वह भारी कर्मबन्ध का हेतु बना देती है, यही अध्यवसाय मनोगत विचार भेद की विचित्रता है।
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