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SHRUTSAGAR
23
October-2018
यह कृति प्राचीन मारुगुर्जर भाषा में लिखी गई है। परंतु इसमें अपभ्रंश भाषा का भी कुछ प्रभाव परिलक्षित होता है। सुगमता हेतु यहाँ ३५ गुणों का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। मूल पाठ में विद्यमान अतिशय नामों को Bold किया गया है। प्रत में प्रतिलेखक के द्वारा गुण नामोल्लेख के साथ १ से ३५ तक क्रमांक भी दिये गए हैं। उसी क्रम में यहाँ भी गुणों का संक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है, जिससे वाचक सुगमता से अनुसंधान कर अर्थ को ग्रहण कर सकें ।
प्रस्तुत कृति के गाथाक्रमांक १९ में २७वें गुण के लिए अर्थ तो सही दिया है, परंतु प्रतिलेखक ने गुण के लिए शब्द प्रयोग 'अद्भुत' की जगह ‘अद्भुत' लिखा है। ऐसा अन्य संपादित समवायांग की टीकाओं में भी मिलता है। लेकिन जंबूविजयजी म.सा. के द्वारा संपादित समवायांग टीका में गुण संगति हेतु उचित शब्द प्रयोग करते हुए 'अद्भुतत्वम्' दिया है।
३५ अतिशयों का संक्षिप्त वर्णन
शब्दाश्रयी ७ वचनातिशय
१. संस्कारवत्- संस्कृतादि लक्षणों से युक्त ।
२. उदात्त - शब्दों में उच्च वृत्तित्व ।
३. उपचारोपेत- अग्राम्य वचन । (ग्रामीण भाषा रहित)
४. मेघगम्भीरघोषत्वम्- मेघ सदृश गम्भीर घोष वाली ।
५. अनुनादित्वं (प्रतिनादता) - प्रतिध्वनि उत्पन्न करने वाली
६. दक्षिणत्वम्- सरलता युक्त ।
७. उपनीतरागत्वम्- मालकोश आदि राग, संगीत के ७ ग्राम, २१ मूर्च्छना संयुक्त । अर्थाश्रयी २८ अतिशय
८. महार्थता - अल्प शब्दों में अत्यधिक अभिधेय कहने योग्य अर्थों का समावेश ।
९. अव्याहतत्वम्- पूर्वापर वाक्यों में अविरोधी वचन ।
१०. शिष्टत्वम्- अभिमत सिद्धान्तोक्त वचन अथवा शिष्ट-वचन युक्त ।
११. असन्दिग्धत्वं- सन्देह रहित ।
१२. अपहृताऽन्योत्तरत्वम् - पुनः स्पष्टता न करनी पड़े व अन्य के दूषणों को प्रगट न करनेवाले वचन ।
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