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श्रुतसागर
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पाठक पुण्यसागर कृत
श्री जिन ३५ वचनातिशय स्तवन
अक्टुबर-२०१८
सुकुमार शिवाजीराव जगताप
प्रस्तावना :
आजतक जितने भी जीव मुक्तिमार्ग को प्राप्त हुए हैं, हो रहे हैं व होंगे, उन सभी के पीछे प्रबल कारण एवं प्रकृष्ट उपकार जिनवाणी का है. 'सवि जीव करुं शासन रसी जगत के समस्त जीवों के कल्याण की उत्कृष्ट भावना के फलस्वरूप आत्मा सर्वदोष मुक्त, सर्वगुण संपन्न तीर्थंकरत्व को प्राप्त करती है और वे ३४ अतिशय एवं ३५ वचनातिशय से युक्त होते हैं. उन ३५ वचनातिशयों की बात प्रस्तुत कृति में की गई है। ‘अतिशय' शब्द का अर्थ; बृहद् संस्कृत हिंदी शब्द कोष - भाग १, पृ. २५ पर- १. ‘अतिशय (वि॰) आधिक्य, अधिकता, प्रमुखता, उत्कृष्टता {सुदर्शनोदय पृ० ८२}; २. अतिशय (वि०) श्रेष्ठ, प्रमुखता, प्रशंसा युक्त {जयोदय महाकाव्यम् वृत्ति २२ / १६} में प्राप्त होता है । ‘शब्दरत्नमहोदधिः' में भी अतिशय का अर्थ 'अतिशय (पुं०) [ अति शीङ् अच् ] अधिकपणुं, अतिरेक, प्रमुखता, उत्कृष्टता' इस प्रकार स्पष्ट किया है ।
‘अतिशय’ के सन्दर्भ में जैनागम की परिभाषा की दृष्टि से स्वीकृत अर्थ 'उत्कृष्ट, श्रेष्ठ अथवा अलौकिक' ज्ञात होता है । जो सर्वसामान्य मनुष्य, देवतादि गणों के लिए भी अप्राप्य अथवा विशेष हो, ऐसे लक्षणों को 'अतिशय’ कह सकते हैं ।
अतिशय युक्त अर्हंत भगवंत दिव्य देशना समवसरण में बैठकर देते हैं । उसमें करोड़ों देवी-देवता, मनुष्य एवं तिर्यंचों का समावेश हो जाता है । और वे परस्पर संकोच एवं विघ्नरहित तथा सुख एवं आनंद के साथ बैठकर देशना सुनते हैं ।
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पैंतीस गुणों से युक्त, सात नय और सात सौ भांगों वाली सप्तभंगी तथा दिव्य संगीतमय, अर्धमागधी (प्राकृत) भाषा में कही गई जिनवाणी एक योजन विस्तार में उपस्थित सर्व जीवों को एक ही समान ध्वनि में श्रोतव्य होती है । देवता दिव्य भाषा में, मनुष्य अपनी मानुषी भाषा में और विविध प्रकार के तिर्यंच जीव अपनी अपनी प्राकृतिक अर्थात् स्वाभाविक भाषा में इस अमृतरूपी जिनवाणी को ग्रहण करके तृप्त होकर आत्मकल्याण के पथ पर स्वयं को स्थापित कर शिवसुख को प्राप्त करते हैं । १. शब्दरत्नमहोदधिः - भाग १, श्री विजयनीतिसूरिश्वरजी जैन पुस्तकालय ट्रस्ट, अहमदाबाद; पृ.४१ २. समवसरणं (नपुं॰) अर्हदुपाश्रय, अर्हत् सभामण्डप (जयोदय महाकाव्यम् २६/५७}; अरहंत की दिव्य देशना का स्थल । महाकवि आ. ज्ञान सागर बृहद् संस्कृत हिंदी शब्द कोष - भाग ३, प्रो. उदयचन्द्र जैन, पृ. ११४८ ।