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October-2018
SHRUTSAGAR निधिसायररसससि(१६७८) संखइं, संवच्छरि गिणती लेखइं। सिवपुरीयइं पंचमि जाणी, पोह१५८ मासइं ऊलट आणी। धन... ॥१०१।. सिरि संति जिणिंद पसाई, खरतरगच्छ सब हि सुहाई। जिनमाणिकसूरि सुपाटई, गुरु सोहए मुणिवर थाटइं१५९ धन... ॥१०२॥ दिल्लीपति भूपति मांनइं, साहिब अकबर सहु कोई जाणइं। वादी जिणि अरियण जीता, पुर नयरि देसि वदीता ६० धन... ॥१०३॥ जिणसासणमांहे दीवो, जिनचंदसूरि चिरंजीवो। तसु पायकमल प्रणमीजइ, मनवंछित जिम सहु सीझइ
॥१०५॥ वाचक श्री रायचंद सीसई, जयनिधान गणी सुभ दीसइं। वाचई जे निसुणइं भावई, मणचिंतिय सब सुख पावई ॥ इति श्रीकामलक्ष्मीचरित्रं सम्पूर्ण:(म्) ॥छ। कल्याणमस्तु॥ श्रीरस्तु ॥ छः॥
श्रीः॥छ॥
॥१०६॥
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं अथवा किसी महत्त्वपूर्ण कृति का नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, जिसे हम अपने अंक के माध्यम से अन्य विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादनकार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? इस तरह अन्य विद्वानों के श्रम व समय की बचत होगी और उस समय का उपयोग वे अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों के सम्पादन में कर सकेंगे.
निवेदक सम्पादक (श्रुतसागर)
मा
१५८. पोष, १५९. समुहथी, १६०. प्रसिद्ध,
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