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चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश
भाविन के. पण्ड्या आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामां हस्तप्रत संपादन तथा वाचकसेवा दरमियान प्रस्तुत कृति ध्यानमां आवेली. जैनसाहित्यमां आपणे आनंदघनजी, देवचंद्रजी, यशोविजयजी, मोहनविजयजी, रामविजयजी, बुद्धिसागरसूरिजी वगेरे विद्वानों द्वारा रचित स्तवनचौवीसी, चैत्यवंदनचौवीसी वगेरे घणी चोवीसीओथी परिचित छीए. प्रस्तुत कृति सामे आव्यां पछी घणां पंडित मित्रोने आ कृति बतावी अने तेमनी प्रेरणा तथा मार्गदर्शनथी आ कृतिनुं संपादन करवानो विचार दृढ बन्यो. कृति परिचय
विविध छंदोमां तथा विभिन्न भाषाओमां घणां जैनश्रमण-श्रावको द्वारा तीर्थंकरोनां गुणगानयुक्त कृतिओ जोवा मळे छे, परंतु आ कृतिनी विशेषता ए छे के सरळ संस्कृत भाषामां तथा शास्त्रग्रंथोमां प्रचुर मात्रामां उपलब्ध एवां अनुष्टप् छंदमां कवि तीर्थंकर परमात्मानी स्तवना करे छे. प्रस्तुत कृतिमां कविए सादां, सरळ, सुगम्य श्लोको द्वारा वर्तमान २४ तीर्थंकरोनी स्तुति-स्तवना करेल छे. प्रथम ६ श्लोकोमां कवि प्रस्तावना स्वरूपे सर्वजिनेश्वरोनी स्तुति करे छे. त्यारबाद ऋषभादि दरेक तीर्थंकरनी स्तुति कवि ५-५ श्लोकोमां करे छे, जेमां कविए तीर्थंकरोनां नाम, जन्म, माता-पितानाम, लंछन जेवा वर्णन साथे स्तुति करी छे. कृतिनां प्रारंभिक श्लोकमां ज कविनी स्तुति भावना सिद्ध थाय छे
“अहो प्रभो ! प्रभावस्ते दृष्टे यत्त्वयि सम्प्रति। परमानन्दनिस्यंदी भवोऽप्येष ममाभवत् ॥”
अर्थात्- हे प्रभु ! आपनो केवो प्रभाव छे ? के आपना दर्शन मात्रथी मारो आ भव, अत्यारे ज परमानंद तत्त्वमा रमण करवा लाग्यो छे. हुं परम आध्यात्मिक आनंदमां ओतप्रोत थई गयो छु.
जेम वीतराग परमात्मानां दर्शन मात्रथी आपणे व्यावहारिक विचारोनां वमळमांथी निवृत्त थई अने परमात्मानां स्वरूपमा एकचित्त बनी जईए छीए, ते ज रीते कवि प्रत्येक तीर्थंकरोनां गुणोनुं आस्वादन ए रीते करावे छे के पठन प्रारंभ करतांज अंत सुधी वांचवा आपणे मजबूर बनीए, साथे-साथे सर्व प्रकारनी मोहमाया तथा मिथ्या विचारोमांथी निवृत्त थई प्रभुभक्तिमां लीन बनी जईए. अंतिम ६ श्लोको पण प्रारंभिक श्लोको ज छे, जे प्रत-कृतिमां उपसंहार रूपे प्रयोजायेल छे.
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