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मांडण-मंडण श्रीअ संघनं ए जाणि कीउ धरम उद्योत; रास रंग रचिउ ए. रचतां परम प्रमोद
श्रुतसागर
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॥१२॥
एक कहि नीलुं झाड हुं भांगु नवि एक कहि खेडि करूं नही ए, एक कहि कूडी-साखि नही देउं एक कहि आरंभ- मांन करुं सही ए; ईणी परि वरण अढार अणसण दिनथकी द(द्र)ह नदीनुं तिहां व्रत लीइ ए, चिंतामणि श्रीसंघ वस्तु विविधपरि नियम करि तेहनि दीइ ए आवुं सहू गांममांहि वांदी जिनबिंब साहा श्रीनी वांणी सुणी ए, पुहचि निज निज ठांमि लीलां भोगवि पूजा करि नित जिन तणी ए; थिरपुर केरुं संघ प्रतपु दिन दिन गयणि जिहां शशि- दिनकरू ए, रिद्धि वृद्धि सुख सार लखिमी अविचल पामुं श्रीसंघ सुंदरू ए ॥ राग-धन्यासी ॥
आंण विना जे मिं करिउ ए, मिच्छा दुक्कड तेह; रास.... अधिकुं ओछ्रं अक्षर थयुं ए, निपुण करुं सोइ सुद्ध रास.... भणि गुणि जे संभलि ए, तस धरि नवह विध्या (धां) न; रास.
1. प्रत अपूर्ण मळेल होवाथी कृति अपूर्ण छे.
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जुलाई-२०१७
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॥१३॥
॥१॥ रास...(आंकणी)
प्राचीन साहित्य संशोधकों से अनुरोध
श्रुतसागर के इस अंक के माध्यम से प. पू. गुरुभगवन्तों तथा अप्रकाशित कृतियों के ऊपर संशोधन, सम्पादन करनेवाले सभी विद्वानों से निवेदन है कि आप जिस अप्रकाशित कृति का संशोधन, सम्पादन कर रहे हैं या किसी पूर्वप्रकाशित कृति का संशोधनपूर्वक पुनः प्रकाशन कर रहे हैं अथवा महत्त्वपूर्ण कृति का अनुवाद या नवसर्जन कर रहे हैं, तो कृपया उसकी सूचना हमें भिजवाएँ, इसे हम श्रुतसागर के माध्यम से सभी विद्वानों तक पहुँचाने का प्रयत्न करेंगे, जिससे समाज को यह ज्ञात हो सके कि किस कृति का सम्पादन कार्य कौन से विद्वान कर रहे हैं? यदि अन्य कोई विद्वान समान कृति पर कार्य कर रहे हों तो वे वैसा न कर अन्य महत्त्वपूर्ण कृतियों का सम्पादन कर सकेंगे.
निवेदक- सम्पादक (श्रुतसागर)
॥२॥
॥३॥'