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श्रुतसागर
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जुलाई-२०१७ प्रत परिचय ___“चतुर्विंशतिजिनस्तोत्रकोश” नामक प्रस्तुत कृति आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबामा हस्तप्रतांक-१४१४८ पर रहेल एकमात्र प्रतमां उपलब्ध छे. प्रतमां कुल ५ पत्रो छे, दरेक पत्रमा १३ पंक्तिओ तथा दरेक पंक्तिमां लगभग ३६-४० अक्षरो छे, अक्षर सुंदर अने स्पष्ट छे. प्रत्येक पत्र पर भिन्न-भिन्न स्वस्तिक, वापी वगेरे आकृतियुक्त फुल्लिकाओअंकित करेल छे, जेना द्वारा प्रतिलेखकनो कलाप्रेम अने कलाकौशल प्रदर्शित थाय छे. प्रारंभमां “भट्टारक तपागच्छनायक श्री विजयदेवसूरिपरमगुरुभ्यो नमः” का छे, जेनाथी सिद्ध थाय छे के ज्यारे तपागच्छनायकपदे आचार्य श्री विजयदेवसूरीश्वरजी हतां, ते समये प्रत लखवामां आवेल छे. आ उपरांत प्रतिलेखक अंतमां “श्री विनयसुन्दर गणिनां विनेय शिष्य मुनिश्री विजयसुन्दरे श्रीमतिपत्तननगरमां । विक्रम संवत् १६६४ मां पण्डित श्री जयवन्तनां शिष्य गणि श्री विनयविजयनी वाचना माटे लखायेल छे.” आ प्रमाणे सुव्यवस्थित प्रतिलेखनपुष्पिका द्वारा पोतानो परिचय आपे छे. प्रतमां ग्रंथान-१२६ श्लोक आपेल छे, अर्थात् उपसंहारनां ६ श्लोकोने ग्रंथाग्रनी संख्यामां गणना करेल नथी. कर्ता परिचय
प्रस्तुत कृतिमां कर्ता संबंधी कोई निश्चित उल्लेख प्राप्त थतो नथी, परंतु प्रतमां आपेल लेखन संवतना आधारे तथा प्रारंभमां आचार्य श्री विजयदेवसरिजी ने नमस्कार करेल होवाथी संभव छे के प्रतिलेखके तेमनी निश्रामां प्रत लखेली होय अथवा आचार्यश्री पर प्रतिलेखकनी अनंत श्रद्धा हशे अथवा तो प्रतिलेखक आचार्य श्रीनी नजीकनी परंपरामां शिष्य-प्रशिष्य स्वरूपे हशे.
चतुर्विंशतिजिन स्तोत्रकोश O॥एँ भट्टारकतपागच्छनायक श्री६ विजयदेवसूरिपरमगुरुभ्यो नमः ।। अहो प्रभो प्रभावस्ते, दृष्टे यत्त्वयि सम्प्रति । परमानंदनिःस्यन्दी, भवोऽप्येष ममाभवत् यासौ चिन्तापिसन्तापहेतुत्वेनैव निर्मिता। त्वदालंबनतः सापि प्राप सन्तापहारिताम्
॥२॥ श्रद्धाविहङ्गिकाशिक्यतुल्ययोश्चित्तनेत्रयोः । एकैकस्मिन् धृतोऽसि त्वं पूर्वमद्यैव तु द्वयोः सेयं जीयाज्जिनाधीश त्वद्भक्तेः शक्तिरद्भुता। यया लोकाग्रसंस्थोऽपि हृदि त्वं मे निवेशितः
॥१॥
॥३॥
॥४॥
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