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श्रुतसागर
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नवम्बर २०१६
में नजर आती है. कहीं-कहीं हमने अपनी ओर से शुद्ध प्रयोग लिखने का प्रयास किया है, जो कोष्ठक में दर्शित है. प्रतिलेखक की साधारण अशुद्धियों को दूर करते हूए इस कृति का संपादन किया गया है. बीच में दिया गया श्लोक - “परवादे सहस्रवदना” के अंतिम दो चरण छूट जाने पर प्रतिलेखक द्वारा निशानी देकर अलग से लिखा गया है, जो पन्ने की किनारी पर होने के कारण घिस गया है व अस्पष्ट है, फिर भी यथासंभव प्रयास करके लिखा है.
प्रस्तुत कृति सुपात्रदान की महत्ता व प्रभाव को दर्शाती है. मासक्षमण के तपस्वी पंचमहाव्रतधारी मुनि भगवंत जैसा पात्र और अंबिका जैसी भाविक श्राविका द्वारा दिया गया दान वाचकों को दान की प्रेरणा देता है. साथ-साथ यह भी निर्देश करता है कि दूसरों की बात पर अंधविश्वास न करके स्वयं सारी स्थिति को देखकर व समझकर ही निर्णय करें ताकि अंबिका की सास जैसी स्थिति न हो. मिथ्यामति का त्याग व सम्यक् जीवन का मार्ग भी दिखलाती है.
कर्ता परिचयः-कृति में कर्ता का कहीं भी उल्लेख नहीं मिल पा रहा है. इस कृति की अन्य प्रतें होने के कारण अनुपलब्ध व अन्य किसी भी प्रमाण के अभाव में यह कृति अभी तो अज्ञातकर्तृक के रूप में ही प्रकाशित की जा रही है.
प्रत परिचयः- प्रस्तुत कृति का संपादन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा की एकमात्र हस्तप्रत ४८२०५ के आधार पर किया गया है. विविध कथा संग्रहात्मक इस प्रत की स्थिति अपूर्ण है, एकमात्र-१३वाँ पत्र उपलब्ध है, उसमें प्रथम पेटांक में सुपात्र दानोपरि हंसपाल कथा का अंतिम कुछ अंश है व १३अ से १३आ में प्रस्तुत कृति संपूर्णरूप से लिखित है. प्रत के अक्षर साधारण, सुंदर, बड़े व सुवाच्य हैं.
प्रत का अंतिम भाग उपलब्ध होने से उसकी प्रतिलेखन पुष्पिका मिल रही है. प्रतिलेखनपुष्पिका हाँसिये में लिखी गई है. पुराने लेखकों का यह विवेक रहता था कि दो-चार लाईन के लिये पुरा पन्ना न लेकर उसी में कहीं समाविष्ट कर देते थे. यदि अन्य कृति भी लिखनी हो तभी अवशेष दो-चार पंक्तियाँ अन्य पृष्ठों पर लिखते थे. इससे हमें ज्ञात होता है कि कागज व पर्यावरण रक्षा का उस समय कितना खयाल रखा जाता था. जो आज अत्यंत आवश्यक है.
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