Book Title: Shrutsagar 2016 06 Volume 03 01
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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SHRUTSAGAR
___16
June-2016 रूपविजयकृत अजितनाथजिन जन्माभिषेक कलश
॥काव्य॥ चक्रे देवेन्द्रवृन्दैः सुरगिरिशिखरे, योभिषेकः पयोभि-नृत्यन्तीभिः सुरीभिर्ललितपदगमं, तूर्य्यवादैः सुरम्यैः । कृत्यस्तस्यानुकारः शिवसुखजनकं, श्री जिनेन्द्राभिषेकं, कर्तुं संसारपारं, त्रिभुवनविभुनां वर्तत शुद्धभक्त्या । अहो भव्यलोकाः सकलजगच्चमत्कारकारी। त्रिभुवनजनानन्दकन्द-सम्पादनैक मनोहारी। श्री अजितनाथ-जिनजन्माभिषेकोऽभिधीयते ॥ कलश ॥
॥ ढाल॥ सकलकमला-केलिसदने जबूद्वीपे सारं, वरत भरतक्षेत्रे, देश कोशल नाम रिद्धि अपारं । तत्रास्ति विनिता नाम नगरी, मानुसुरपुरी एह, प्रसाद मंदिर श्रेणि सुंदर पापनी नहि रैह ॥१॥ तत्रास्ति अरि करि केसरी, जितशत्रुनरपतिनाम, तस्यास्ति प्रमदा, प्रेमखाणी, राणी विजया नाम । रति गोरी रंभा, लहि अचंभा, रही अदृश्य ठाम, जस रूपलवणिमलाज विनयादिक गुणो अभिराम ।।२।। पिउसंगे रंगे अतीउमंगे सुख अभंगे चंग, बहुकाल सुखभर लील करते, चढत रंग अभंग। निशिमध्य समये राणि विजया, सुपना चउदस सार, शुभश्रेणी दायक, लच्छि नायक, देखी हरख अपार ॥३॥
॥ ढाल ॥ हारे, श्री अजित जिनेश्वर, जगतदिनेसर देव, जस चोसठ सुरपति, सारे अहनिशि सेव रे। गुणसागरनां आगर, नागर नमे जस पाय रे, महिमांनधि सुंदर, सुरनरवधु गुण गाय रे॥१॥
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