Book Title: Shrut Ratna Ratnakar
Author(s): Pradyumnavijay
Publisher: Syadwad Prakashan Mandir Trust

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Page 171
________________ श्रुतरत्नरत्नाकरे 158 थवोऽवि जाव नेहो जीवाणं ताव निव्वुई कत्तो ? / / नेहक्खयम्मि पावइ पेच्छ पईवोवि निव्वाणं // 515 // इय धीराण ममत्तं नेहो य नियत्तए सुयाईसु / रोगाइआवईसु य इय भावंताण नवि मोहो // 516 // नरतिरिएसु गयाइं पलिओवमसागराइंऽणंताई। किं पुण सुहावसाणं तुच्छमिणं माणसं दुक्खं ? // 517 // सकयाइं च दुहाई सहसु उइन्नाई निययसमयम्मि / न हु जीवोऽवि अजीवो कयपुव्यो वेयणाईहिं / / 518 // तिव्वा रोगायंका सहिया जह चक्किणा चउत्थेणं / तह जीव ! ते तुमंपि हु सहसु सुहं लहसि जमगंतं / / 519 / / जे केइ जए ठाणा उईरणाकारणं कसायागं / , ते सयमवि वजंता सुहिणो धीरा चरंति महिं // 520 // हियनिस्सेयसकरणं कल्लाणसुहावहं भवतरंडं / सेवंति गुरुं धन्ना इच्छंता नाणचरणाइं // 521 // मुहकडुयाइं अंतेसुहाइं गुरुभासियाइ सीसेहिं / सहियव्वाइं सयावि हु आयहियं मग्गमाणेहिं // 522 // इय भाविऊण विणयं कुणंति इह परभवे य सुहजणयं / . जेण कएणऽन्नोऽवि हु भूसिजइ गुणगणो सयलो // 523 // एवं कए य पुवुत्तझाणजलणेण कम्मवणगहणं / दहिऊण जंति सिद्धि अजर अमरं अणंतसुहं // 524 // हेमंत-मयण-चंदण-दणुसूररिणाइवन्ननामेहिं / ' सिरिअभयसूरिसीसेहिं रइयं भवभावणं एयं // 525 //

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