Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti

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Page 3
________________ मृगीवत यत्र-सत्र शरण खोजता है, उन वस्त मानधों को यह अद्वितीय शरण है । पाठक इसका अध्ययन कर चिरशान्ति प्राप्त करने में समर्थ हो सकते हैं। प्राचार्य श्री १०८ श्रुतसागरजी महाराज के परमशिष्य श्री १०८ प्राचार्य सकलकीति जी महाराज ने बीसवे तीर्थङ्कर श्रीमुनिसुयतनाथ भगवान के काल में ऊत्पन्न श्रीपाल-मैना का चरित्र वर्णन कर हमें अतीत की निर्मल-सुखद स्मृतिमा का रसपान कराया है । यह ग्रन्य अपने में अनोखा और सिद्धचक्रव्रत के स्वरूप का यथार्थ, अभ्रान्त, प्रामाणिक वर्णन करता है । अन्यत्र ऐसा सुस्पष्ट वर्णन प्राप्त नहीं होता । यह प्राचीन और आर्षपरम्परानुसार विधि-विधान का निरूपक है। ___ इस ग्रन्थ की प्राप्ति हमें पोन्लूरमलै (तमिलनाडु) में हुयी। वहां के श्री समन्तभद्र शास्त्री एवं श्री श्रीधर नैनार के सहयोग से इसकी लिपि (मशिप्रवाल व वन्धलिपि) का वाचन करने का अभ्यास किया। इसकी भाषा संस्कृत है। लिपि ग्रलिपि होने से पर्याप्त श्रम हुआ। परन्तु इसकी सूक्ष्म व्याख्या, पूजन विधि-विधान, राग का विसग से परास्त होना आदि विवरण बड़े ही रोचक, सबल, युक्तियुक्त और पार्षपरम्परा के पोषक हैं। हमारे अधिकांश भाई-बहिनों को यह प्रास्था है कि मदनसुन्दरी ने केवल सिद्धचक्र यन्त्र की पूजा-अभिषेक किया, जिनप्रतिमा का नहीं, उनकी इस संशयात्मक धारणा का निरसन इस के अध्येता को हुए बिना नहीं रहेगा। धर्म के क्षेत्र में सर्वत्र नारी सर्व क्रियाओं में अग्रेसर रही हैं यह निभ्रान्त इससे सिद्ध हो जाता है । अस्तु पाठक-पाठिकाए इससे लाभान्वित होंगे तो हमारे परिश्रम का यथार्थ फल होगा । अवश्य ही इसके अध्येता यथार्थ विधि-विधान, क्रिया-कलाप, ज्ञात कर जिनभक्ति सिद्धभक्तिकर सम्यक्त्व प्राप्तिकर प्रज्ञाचक्षु उन्मीलित करेंगे और संयमपथ के अनुगामी बन आत्म'शोधना कर सकेंगे : मेरा विश्वास है आज की अवला और पतिता नारी समाज मदनमञ्जूषा के जोवन परिचय से अपनो पाशविक प्रवृत्तियों को विषयतषा की दाह को संयम जल के मधुर बिन्दुओं से अभिसिंचित कर शान्त करने में प्रयत्नशील होंगी। मैंनासुन्दरी बी पतिभक्ति, और जिनभक्ति हमें लौकिक जीवन का शृगार और पारलोकी जीवन का अमर आनन्द प्राप्त कराने में समर्थ कारण बनेगी । जीवन की बीहड-कटीली राहों में श्रीपाल का धैर्य हमें संवल प्रदान करेगा। अस्तु, पाठक अवश्य एकाग्रचित से इसका स्वाध्याय, मनन और चिन्तन करेंगे यह पूर्ण आशा है। ग्रन्थलिपि और संस्कृत भाषा होने से अटियाँ रहना स्वाभाविक है । इसके संशोधन में अर्थात व्याकरण सम्बन्धी अटियों के सुधार में व्याकरणाचार्य श्री प्रभाकरजी शास्त्री श्रवणवेलगोल से पर्याप्त सहयोग प्राप्त हुआ । उन्हें हमारा आशीर्वाद है कि उनकी विद्याबुद्धि सच्चे पार्षग्रन्थों में प्रयत हो। यद्यपि हमने शुद्धिकरण का पर्याप्त ध्यान रखा है तो भी अल्पज्ञतावश कहीं न कहीं अक्षर पद मात्रादि का विपर्यया या न्यूनाधिकता रह सकती है। अतः पूज्य गुरुजनों से विनम्र करबद्ध प्रार्थना है कि वे संशोधन करें और भविष्य के लिए मुझे मार्गदर्शन करावें । विद्वजनों से भी मेरा कहना है कि ये सुधार करने और हमें सूचना देवर साबधान होने का अवसर दें। इस वृहद् ग्रन्थ का प्रकाशन "श्री दि. जैन विजयाग्रन्थ प्रकाशन समिति, जयपुर" से हो रहा है यह परम संतोष का विषय है । इस समिति का बैशिट्य यह है कि प्रफ संशोधन विशेष सुन्दर VII

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