Book Title: Shodshaka Prakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Buddhisagar
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund
View full book text
________________
॥श्रीयशोभद्रसूरिकृतटीकायुक्तषोडशकम् ॥ प्रणिपत्य जिनं वीरं सद्धर्मपरीक्षकादिभावानाम्॥लिंगादि भेदतः खलु वक्ष्ये किंचित्समासेन ॥१॥
ॐ नमः सर्वज्ञाय । अमृतमिवामृतमनघं जगाद जगते हिताय यो वीरः। तस्मै मोहमहाविषविघातिने स्तानमः सततं ॥१॥ यस्याः संस्मृतिमात्राद् भवन्ति मतयः सुदृष्टपरमार्थाः॥ वाचश्च बोधविमलाः सा जयतु सरस्वती देवी ॥२॥ इह भवजलधिनिमग्नसत्त्वाभ्युज्जिहीर्षाभ्युद्यतेन स्वहितसंपादननिपुणेन गुरुलाघवचिन्तावता प्रश्नार्थव्याकरणसमर्थेन विदुषा ४ |सद्धर्मपरीक्षायां यत्नो विधेयः । सा च परीक्षकमंतरेण न संभवति, तदविनाभावित्वात् परीक्षायाः। सद्धर्मपरीक्षकादि भावप्रतिपादनार्थ चार्याषोडशकाधिकारप्रतिवद्धं प्रकरणमारेभे हरिभद्रसूरिस्तस्य चादावेव प्रयोजनाभिधेयसंबंधप्रतिपादनार्थमिदमार्यासूत्रं जगाद ॥ प्रणिपत्य नमस्कृत्य, जिनं जितरागद्वेषमोहं सर्वज्ञं, वीरं सदेवमनुष्यासुरलोके श्रमणो: भगवान्महावीर इत्यागमप्रसिद्धनामानमनेनेष्टदेवतास्तवद्वारेण मंगलमाह । सद्धर्मपरीक्षकस्त्रिविधो वक्ष्यमाणस्तदादयो ये भावास्तेषां किंचिदित्यस्य स्वल्पमात्राभिधायित्वाल्लेशं वक्ष्ये लिंगादिभेदतः खल्विति लिंगवृत्तादिविशेषप्रतिपादनद्वारेण यद्यप्यपरैरेव पूर्वाचायः सद्धर्मपरीक्षादयो भावाः स्फुटमेवाभिहितास्तथाप्यहं समासेनैवाभिधास्यामीति संक्षेपाभिधानं प्रयोजनं । स्वरूपतस्तुशिष्यबुद्धौ सद्धर्मपरीक्षकादिभावानामारोपणं, तच्च वचनरूपापन्नं प्रकरणमंतरेण न संभवतीति
श्रीषो.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 ... 230