Book Title: Shatprabhutadi Sangraha
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 418
________________ रयणसारः। ४०३ कामदुहिं कप्पतरं चिंतारयणं रसायणं परमं । लद्धो भुंजइ सुक्खं जह हियं जाण तह सम्मं ॥५४॥ कामदुहं कल्पतरं चिन्तारत्नं रसायनं परमं । लब्धः भुंक्त सुखं यथा स्थितं जानीहि तथा सम्यक्त्वं ॥ केतकफलभरियणिम्मलववगयकालियसुवण्ण व्व । मलरहियसम् जुत्तो भव्ववरो लहइ लहु मोक्खं ॥ ५५ ॥ कतकफ तनिर्मलव्यपगत कालिकासुवर्णवत् । मलरहि सम्यक्त्वयुतो भव्यवरो लभते लघु मोक्षं ॥ पुवठियं खवइ कम्मं पइसदु णो देइ अहिणवं कम्मं । इहपरलोयमहप्पं देई तहा उवसमो भावो ॥५६॥ पूर्वस्थितं क्षपयति कर्म प्रवेष्टुं न ददाति अभिनवं कर्म । इहपरलोकमाहात्म्यं ददाति तथा उपशमो भावः ॥ सम्माइट्टी कालं वोलइ वेरग्गणाणभावेण । मिच्छाइट्टी वांछादुब्भावालस्सकलहेहिं ॥ ५७ ॥ सम्यग्दृष्टिः कालं गमयति वैराग्यज्ञानभावेन । मिथ्यादृष्टिः वाञ्छादुर्भावालस्यकलहैः ॥ अजवसप्पिणिभरहे पउरा रुद्दट्टझाणया दिवा । णहा दुटा कहा पाविद्या किण्हणीलकाओदा ॥ ५८ ॥ अद्यावसर्पिणीभरते प्रचुरा रुदार्तध्याना दृष्टाः । नष्टा दुष्टाः कष्टाः पापिष्ठाः कृष्णनीलकापोताः ।। अज्जवसप्पिणिभरहे दुस्समया मिच्छपुव्वया सुलहा। सम्मत्तपुव्वसायारणयार दुल्लहा होति ।। ५९ ॥ १ रसपुरुषं ख.। २ गाथेय ख. पुस्तके नास्ति.। ३ गाथेयं ख. पुस्तके नास्ति। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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