Book Title: Shatprabhutadi Sangraha
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti

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Page 434
________________ रयणसारः । ४१९ देह कलत्तं पुत्तं मित्ताइ विहावचेदणारूवं । अप्पसरूवं भावइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥ १३७॥ देहं कलत्रं पुत्रं मित्रादिकं विभावचेतनारूपं । आत्मस्वरूपं भावयति स एव भवेत् बहिरात्मा ॥ इंदियविसयसुहाइसु मूढमई रमइ ण लहई तचं । बहुदुक्खमिदि ण चिंतइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥१३८ । इन्द्रियविषयसुखादिषु मूढमतिः रमते न लभते तत्वं । बहुदुःखमिति न चिन्तयति स एव भवेत् बहिरात्मा ॥ जं जं अक्खाण सुहं तं तं तिव्वं करेइ बहुदुक्खं । - अप्पाणमिदि ण चिंतइ सो चेव हवेइ बहिरप्पा ॥१३९।। यद्यदक्षाणां सुखं तत्तत्तीवं करोति बहुदुःखं । आत्मानमिति न चिन्तयति स एव भवेद्बहिरात्मा । जेसिं अमेज्झमज्झे उप्पण्णाणं हवेइ तत्थेव रुई। तह बहिरप्पाणं बाहिरिदियविसएसु होइ मई ॥१४०॥ __येषां अमेध्यमध्ये उत्पन्नानां भवेत् तत्रैव रुचिः । तथा बहिरात्मनां बहिरिन्द्रियविषयेषु भवति मतिः ॥ सिविणे वि ण भुंजइ विसयाई देहाइभिण्णभावमई । भुंजइ णियप्परूवो सिवसुहरत्तो दु मज्झिमप्पो सो ॥१४१॥ स्वप्नेऽपि न मुंक्त विषयान् देहादिभिन्नभावमतिः । भुंक्ते निजात्मरूपं शिवसुखरक्तः तु मध्यमात्मा सः । मलमुत्तघडव्य चिरं वासिय दुव्वासणं ण मुंचेइ । पक्खालियसम्मत्तजलो येण्णाणम्मएण पुण्णो वि ॥ १४२ ॥ १ रमइ लहइ ण लहई तं ख । २ वि य णाणावियेण पुण्णो वि. ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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