Book Title: Shatprabhutadi Sangraha
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
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४२४
श्रीकुन्दकुन्दाचार्यविरचिता
रत्नत्रयमेव गणः गच्छः गमनस्य मोक्षमार्गस्य ।
संघो गुणसंघातः समयः खलु निर्मल आत्मा ॥ जिणलिंगधरो जोई विरायसम्मत्तसंजुदो णाणी । परमोवेक्खाइरियो सिवगइपहणायगो होई ॥१६४॥ जिनलिंगधरो योगी विरागसम्यक्त्वसंथुतो ज्ञानी ।
परमोपेक्षादिरिक्तः शिवगतिपथनायको भवति ॥ सम्मं णाणं वेरग्गतवोभावं णिरीहवित्तिचारित्तं । गुणसीलसहावं उप्पजइ रयणसारमिणं ॥१६५॥
सम्यक्त्वं ज्ञानं वैराग्यतपोभावं निरीहवृत्तिचारित्रं ।
गुणशीलस्वभावं उत्पादयति रत्नसारोऽयं ॥ गंथमिणं जो ण दिइ ण हु मण्णइ ण हु सुणेइ ण हु पढइ । ण हु चिंतइ ण हु भावइ सो चेव हवेइ कुदिट्टी ॥१६६॥ प्रन्थमिमं यो न पश्यति न हि मन्यते न हि शृणोति न हि पठति । न हि चिन्तयति न हि भावयति स चैव भवेत् कुदृष्टिः ॥ इदि सजणपुजं रयणसारं गंथं णिरालसो णिचं । जो पढइ सुणइ भावइ पावइ सो सासयं ठाणं ॥ १६७ ॥ इति सज्जनपूज्यं रत्नसारग्रन्थं निरालेसो नित्यं । यः पठति शृणोति भावयति प्राप्नोति स शाश्वतं स्थानं ॥
समाप्तोयं रयणसारः
१ अस्या अग्रे ५४ अंके स्थिता कामदुहीति गाथा वर्तते लिखित-पुस्तके । ख-पुस्तके तु अत्रैव । २ अस्मादने अजविसप्पिणीत्यादि ६० अंके स्थिता गाथा लिखित-पुस्तके, ख-पुस्तके त्वत्रैव ।
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