Book Title: Shatprabhutadi Sangraha
Author(s): Kundkundacharya, Pannalal Soni
Publisher: Manikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
________________
रयणसारः ।
भुंजे जहालाहं लहेइ जड़ णाणसंजमणिमित्तं । झाणज्झयणणिमित्तं अणियारो मोक्खमग्गरखो ।। ११५ ।। भुंक्ते यथालाभं लभते यतिः ज्ञानसंयमनिमित्तं । ध्यानाध्ययननिमित्तं अनगारो मोक्षमार्गरतः ॥ उयरग्गिसमण मक्खमक्खण गोयार सम्भपूरण भमरं । णाऊण तप्पयारे णिच्च एवं भुंजए भिक्खु ॥ ११६ ॥ उदग्निशमन अक्षम्रक्षणं गोचारं श्वम्रपूरणं भ्रमरं । ज्ञात्वा तत्प्रकारान् नित्यमेवं भुंक्तां भिक्षुः || रसरुहिरमंसमेदहिसुकिलमलमुत्तपूय किमिबहुलं । दुग्गंधमसुइचम्ममयमणिचमचेयणं पडणं ॥ ११७ ॥ रसरुधिरमांसमेदोऽस्थिशुक्लमलमूत्रपूयकृमिबहुलं । दुर्गन्धमशुचि चर्ममयमनित्यमचेतनं पतनं ॥ बहुदुक्खभायणं कम्मकारणं भिण्णमप्पणी देहो । तं देहं धम्माणुट्टाणकारणं चेदि पोसए भिक्खू ॥ ११८ ॥ बहुदुःखभाजनं कर्मकारणं भिन्न आत्मनो देहः ।
तं देहं धर्मानुष्ठानकारणं चेति पोषयेत् भिक्षुः । कोहेण य कलहेण य जायणसीलेण संकिलेसेण । रुण य रोसेण य भुंज किं विंतरो भिक्खू ॥ ११९ ॥ क्रोधेन च कलहेन च याचनाशीलेन संक्लेशेन । रुद्रेण च रोषेण च भुंक्ते किं व्यन्तरो भिक्षुः ॥ दिव्वुत्तरणसरित्थं जाणिच्चाहो धरेह जइ सुद्धो । तत्तायसपिंडसम भिक्खू तुह पाणिगयपिंडं ॥ १२० ॥
१ देहं . ख. ।
Jain Education International
४१५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Page Navigation
1 ... 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494