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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
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युद्धादिक करता ? जातै मदबुद्धि हू बिना प्रयोजन किचिन्मात्र भी कार्य न करै । ताते जानिए है - वह ईश्वर हम सारिखा ही है, ताका जस गाएं कहा सिद्धि है ? बहुरि वह है है हमारे शास्त्रनि विषै वैराग्य, त्याग, अहिसादिक का भी तो उपदेश है ।
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तहां कहिए हैं - सो उपदेश पूर्वापर विरोध लिए हैं । कही विषय पोषे है, कही निषेधे है। कही वैराग्य दिखाय, पीछे हिसादि का करना पोप्या है । तहां वातुलवचनवत् प्रमाण कहा ?
बहुरि वह है है कि वेदांत आदि शास्त्रनि विषै तो तत्त्व ही का निरूपण है ।
तहां कहिए है - सो निरूपण प्रमाण करि बाधित, अयथार्थ है । ताका निराकरण जैन के न्यायशास्त्रनि विषै किया है, सो जानना । तातै अन्य मत के शास्त्रनि का अभ्यास न करना ।
ऐसे जीवनि को इस शास्त्र के अभ्यास विषै सन्मुख किया, तिनको कहिए है
हे भव्य ! शास्त्राभ्यास के अनेक अंग है । शब्द का वा अर्थ का वांचना, या सीखना, सिखावना, उपदेश देना, विचारना, सुनना, प्रश्न करना, समाधान जानना, बार बार चरचा करना, इत्यादि अनेक अंग है । तहां जैसे बन तैसै अभ्यास करना । जो सर्व शास्त्र का अभ्यास न बनै तौ इस शास्त्र विषै सुगम वा दुर्गम अनेक अर्थनि का निरूपण है । तहा जिसका बने तिसही का अभ्यास विषै आलसी न होना ।
अभ्यास करना । परंतु
देखो ! शास्त्राभ्यासको महिमा, जाकौ होते परंपरा प्रात्मानुभव दशा कौं प्राप्त होइ सो मोक्ष रूप फल निपजै है; सो तो दूर ही तिष्ठौ । शास्त्राभ्यास ते तत्काल ही इतने गुरण हो है । १ क्रोधादि कपायनि की ती मंदता हो है । २ पंचइंद्रियनि की विषयनि विषै प्रवृत्ति रुकै है । ३. प्रति चंचल मन भी एकाग्र हो है । ४. हिसादि पच पाप न प्रवर्त है । ५. स्तोक ज्ञान होतं भी त्रिलोक के त्रिकाल संबंधी चराचर पदार्थनि का जानना हौ है । ६. हेयोपादेय की पहिचान हो है । ७. आत्मज्ञान सन्मुख हो है ( ज्ञान आत्मसन्मुख हो है ) । ८ अधिक अधिक ज्ञान होते आनंद निपजै है । ६. लोकविषे मूहिमा, यश विशेष हो है ।१०. सातिशय पुण्य का बंध हो है - इत्यादिक गुरग शास्त्राभ्यास करते तत्काल ही प्रगट होई हैं ।
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