Book Title: Samvegrati Author(s): Prashamrativijay, Kamleshkumar Jain Publisher: Kashi Hindu Vishwavidyalaya View full book textPage 3
________________ सम्पादकीय भारतीय वाङ्मय अत्यन्त विशाल है। इसमें सरस्वती के आराधको ने अनेक ग्रन्थरत्नो का समावेश कर माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध किया है। इसके अन्तर्गत जैन वाङ्मय भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण एवं विशाल है । तीर्थङ्कर भगवान् महावीरस्वामी की दिव्यध्वनि के आधार पर उनके प्रथम गणधर श्रीगौतमस्वामी ने द्वादशानी का सृजन किया था, जिसके आलोक में आज भी जीवमात्र को सुख-शान्ति की प्राप्ति हो रही है। पुनः द्वादशाङ्गी को आधार बनाकर अनेक परम्पराचार्यो एवं अन्य प्रबुद्ध आचार्यो-मुनिओं ने परवर्तीकाल में विभिन्न ग्रन्थों का सृजन किया है, जो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के अनुरूप हैं । साहित्यसृजन की यह परम्परा अद्यापि ईसा की इक्कीसवीं सदी में विद्यमान है, फलस्वरूप अन्य अनेक आचार्यो-सन्तो के साथ ही पूज्य मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी महाराज साहेब भी निरन्तर काव्यरचना में संलग्न हैं। पूज्य मुनिश्री संस्कृत, प्राकृत, हिन्दी एवं गुजराती आदि विविध भारतीय भाषाओं के तलस्पर्शी विशिष्ट अध्येता हैं । संस्कृत भाषा पर उनका अप्रतिम अधिकार है और छन्दोरचना में उनकी गति अबाध है, फलस्वरूप उन्होंने संस्कृत भाषा में अनेक रचनाएँ प्रस्तुत कर माँ सरस्वती के भण्डार को समृद्ध किया है । सम्प्रति मुनिश्री प्रशमरतिविजयजी महाराज ने श्रीसंवेगरति नामक संस्कृत काव्य की संरचना करके जहाँ उन्होंने अपने अगाध वैदुष्य का परिचय दिया है, वहीं उन्होंने जब सामान्यजन के लिए यह निर्देश दिया है की जीव पापपुण्यरूप अपने कर्मों के फल कि प्राप्ति अवश्य करता है । अतः प्रत्येक जीव को पापरूप कर्मो से निवृत्त होकर पुण्यरूप कर्मों में प्रवृत्त होना चाहिए तथा अन्त में पाप और पुण्यरूप कर्मों से भी निवृत्त होकर शाश्वत सुख के धाम मोक्ष की प्राप्ति करनी चाहिये । श्रीसंवेगरति नामक प्रस्तुत काव्य में अनेक सूक्तियों किंवा नीतिवाक्यो का भी समावेश किया गया है, जिससे काव्य की गहराई और बढ़ गई है। प्रस्तुत श्रीसंवेगरति नामक संस्कृत काव्य के सम्पादन का कार्य सम्पन्न कर मैं अत्यन्तPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 ... 155