Book Title: Samvedasya Mantra Bramhnam
Author(s): Satyabrata Samasrami
Publisher: Calcutta
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२५० ४ख ११-१३ ।
१११
तदभाति मण्डलं ॥ एवं त्वा वेद यो वेदेशाने गान् प्रयच्छ मे ॥१३।। भूर्भुवः स्व रोए सूर्य इव दृशे भूयास मग्निरिव तेजसा वायरिव प्राणेन सोम इव गन्धे न शाद वहिश्च 'मण्डलं' परिधिः ‘ीति' दीप्यते, तत् ब्रह्म आत्म - ति च । हे 'वेदेशान' वेदाधिप! आत्मन् ! 'त्या' त्वाम एवं एवम्प्रकारेण 'या' यः-अह 'वेद' जानामि, तम्म 'मे' मा 'ईशान्' ऐषयान् वच्छं ॥ १३ ॥
है 'भूर्भुवः स्वरोम् !' 'भूः' पृथिवी, 'भूवः' अन्तरीक्ष, 'स्वः' द्यौ:- एतल्लाकत्रय व्यापक ! 'ओं' आत्मन् ! [अथवा पृथिवीस्थानोऽग्निः, अन्तरीक्षस्था वायुः, स्वस्थः सूर्य:, ओ मित्यात्मनः प्रतीक एतच्चतुष्टय मेवात्र सम्बोध्यम् ] भवत: पुसादात् 'दृशे' समदर्शनाय 'सूर्य इव' 'भूयासम्', 'तेजसा' 'अग्निः इव' यथा अग्निस्त जस्त्री तथा भूयासम , 'पाणन' प्रभावेन 'वायुरिव' অবকাশ দায়ক ; তাহা কিরূপ?—যাহার আকাশ হইতেও বাহিরে পরিধি ভান হইতেছে ; উহা ব্ৰহ্ম, বা অত্মাি হইতেছে ; হে বেদাধিপ! আত্ম! তােমাকে এই রূপেই আমি জানিতেছি, আমাকে ঐশ্বৰ্য্য প্রদান কর ॥১৩। दर डूतन: [खिरनाक दाक्षिक, त [७]दक्षिा गनिन् ! আপনার প্রসাদে সকল বস্তুর সমদর্শনে যেন সূর্যের ন্যায়, তেজেতে যেন অগ্নির ন্যায় প্রভাবেতে যেন বায়ুর ন্যায়, গন্ধ গ্রহণে যেন চন্দ্রের ন্যায় বুদ্ধিতে যেন বৃহস্পতির ন্যায়
१३-~-आत्मा आदित्यीवा देवता। अनुष्ट प छन्दः । उपस्थाने विनियोगः । “पञ्चम्यादित्य मुपस्थाय गृहान् प्रपद्ये त” गो० ४, ५ ।
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