Book Title: Samaysara
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 153
________________ 142 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा हमारा दृष्टिकोण इनसे अप्रभावित होता है, चिन्तन की सारी धारा बदल जाती है। जब तक जीवन के प्रति आकांक्षा का दृष्टिकोण रहेगा, निमित्त को मूल मानने का दृष्टिकोण रहेगा, तब तक हम सत्य के साथ न्याय नहीं कर पाएंगे। प्रश्न है - हम जीते हैं, उसका उपादान क्या है? निमित्त अनेक हो सकते हैं। हम रोटी खाते हैं इसलिए जीते हैं। हवा, पानी लेते हैं इसलिए जीते हैं। ये निमित्त हैं, उपादान नहीं । उपादान आयुष्य कर्म ही है । यदि आदमी का आयुष्य पूरा हो जाए तो उसे कौन जिला सकता है ? क्या विश्व के बड़े-बड़े डॉक्टर और बहुमूल्य दवाइयां उसे जिला देंगी ? यदि इस प्रकार कोई आदमी बच पाता तो अमीर आदमी कभी मरता ही नहीं। गरीब आदमी जरूर मर जाते पर करोड़पति और लखपति आदमी अमर हो जाते। सचाई यह है- -जब प्राणशक्ति समाप्त हो जाती है तब कोई शक्ति किसी को जिला नहीं सकती। उपादान को बदलें हम जीवन और मरण के उपादान को समझें । हम लोग निमित्तों में उलझ जाते हैं । निमित्तों का कुछ मूल्य जरूर होता है पर सब कुछ निमित्तों को ही मान लेना हमारी अज्ञानता है। हम पहले उपादान को देखें। यदि हम वृत्तियों को बदलना चाहें और मूल कारण का स्पर्श न करें तो उनमें परिवर्तन कभी संभव नहीं है । आजकल वैज्ञानिक ऐसी खोज में लगे हैं, जिनके द्वारा आदमी की वृत्तियां बदल दी जाएं पर जब तक दवा का असर रहेगा तब तक ही परिवर्तन टिक पायेगा । ज्योंही दवा का असर समाप्त होगा फिर वही हालत बन जाएगी। जब तक हम मूल आधार को प्रकंपित नहीं करेंगे, मूल कारण का परिष्कार नहीं करेंगे तब तक परिवर्तन की बात संभव नहीं हो पाएगी। आचार्य भिक्षु का कथन आयार्य भिक्षु ने बहुत सुन्दर बात लिखी है जीव जीवै ते दया नहीं, मरै तो हिंसा मत जाण । मारण वाला ने हिंसा कही नहीं मारै ते दया गुण खाण ।। कोई जीव जीता है, यह दया नहीं है। कोई जीव मरता है, यह हिंसा नहीं है। हिंसा है मारना । दया है नहीं मारना । कोई जिलाने में निमित्त बन सकता है तो कोई मारने में निमित्त बन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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