Book Title: Samaysara
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 173
________________ 162 समयसार : निश्चय और व्यवहार की यात्रा जो अप्पणा दु मण्णदि, दक्खिदसहिदे करेदि सत्ते ति। सो मूढो अण्णाणी णणी एत्तो दु विवरीदो।। आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा-मैं जीवों को सुखी या दुःखी करता हूं,यह तुम्हारी जो मति है, यह मढ मति है। इससे शभ अशुभ कर्म का बंध होता है। एसा दु जा मदी दे दुक्खिदसहिदे करेमि सत्तेति। एसा दे मढ़मदी सहासहं बंधदे कम्म।। दूसरा मात्र निमित्त है। सुख और दुःख के संदर्भ में यह एक मिथ्या अवधारणा है। जब यह मिथ्या धारणा मिटती है तब व्यक्ति सचमुच अपने भाग्य की ओर अपने हाथ में थाम लेता है। जब तक यह धारणा बनी रहती हैं तब तक अपना भाग्य दसरों के भरोसे रहता है। इस स्थिति में आत्म विश्वास या आत्म कर्तव्य की बात समाप्त हो जाती है। इस दुनिया में दूसरे के भरोसे बैठने से खतरनाक कोई काम नहीं है। व्यक्ति तब अच्छा आचरण करता है जब वह यह जानता है- मेरे आचरण का फल मझे मिलेगा। रोगी स्वयं सावधान है तो डाक्टर का सहारा मिल सकता है। वह स्वयं ही सावधान नहीं है तो डाक्टर क्या करेगा? जब तक यह सम्यग् दृष्टिकोण नहीं बनेगा- वास्तव में सुख दःख का कर्ता मैं स्वयं हं. दसरा व्यक्ति निमित्त मात्र बन सकता है तब तक अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में नहीं आ पाएगी। उपादान स्वयं है हम इस बात पर विमर्श करें - सुख दुःख का उपादान कौन है? क्या व्यक्ति स्वयं उपादान नहीं है? जब उपादान से हटकर निमित्तों पर हमारी धारणा अटक जाती है तब दृष्टिकोण मिथ्या बनता है। जिस व्यक्ति का दष्टिकोण मिथ्या होता है, उसके दःख को भगवान भी नहीं मिटा सकता। ध्यान का अर्थ है- हम उन सचाइयों तक पहुंचे, जहां तक सामान्य आदमी पहुंच नहीं सकता। वहां तक पहुंचने में बहुत आवरण हैं, अनेक गत्यवरोधक हैं। सामान्य आदमी उन्हें पार नहीं कर सकता। सामान्य व्यक्ति सुख दुःख का आरोपण दूसरे पर करता है लेकिन एक साधक का दृष्टिकोण इससे भिन्न होना चाहिए। दुःख का मूल _ इस प्रश्न पर अध्यात्म के आचार्यों ने भी गंभीर विचार किया। .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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