Book Title: Samaysara
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 172
________________ अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में प्राचीन समय की बात है। एक बिरदावली गाने वाला चारण किसी सेठ के घर पहुंचा। उसने सेठ की बिरदावली गाई। सेठ बहुत खुश हआ। चारण ने सोचा, आज बहुत धन मिलेगा। सेठ ने चारण को पुरस्कार में एक रुपया दिया। चारण ने कहा- यह क्या? इतनी कंजूसी? सेठ ने जवाब दिया- मेरा नियम है कि जब किसी को दान देना होता है तब दाढ़ी पर हाथ फेरता हूं और जितने केश हाथ में आ जाते हैं उतने रुपए दे देता हूं। चारण बोला- सेठजी! मेरे भाग्य का निर्णय मुझे ही करने दें, आप हाथ मत फेरें। बाधा है मिथ्या धारणा हम लोग भी अपने भाग्य का निर्णय दूसरों पर छोड़ देते हैं, अपने आप अपने भाग्य का निर्णय नहीं करते। हम अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में थामकर नहीं रखते, उसे दूसरों के भरोसे छोड़ देते हैं। सुख और दुःख का संदर्भ लें। वास्तव में सुखी या दुःखी होना व्यक्ति के अपने हाथ में है। दसरा व्यक्ति निमित्त बन सकता है। एक डाक्टर भी निमित्त बन सकता है, एक धनवान भी निमित्त बन सकता है लेकिन वह किसी को सुखी या दुःखी बना नहीं सकता। निमित्त निमित्त है, उससे ज्यादा उसके हाथ में कोई शक्ति नहीं है। अपने भाग्य की डोर अपने हाथ में तभी रह सकती है जब मिथ्या धारणाएं बदल जाएं। व्यक्ति जब तक मिथ्या धारणाओं को पालता रहता है तब तक वह अपने भाग्य की डोर को पकड़ नहीं पाता। संदर्भ सुख दुःख का एक मिथ्या धारणा है- मैं किसी को सुखी बनाता हूं मैं किसी को दुःखी बनाता हूं। आचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा- जो यह मानता है कि मैं जीवों को सुखी या दुःखी करता हूं, वह मूढ है, अज्ञानी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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