Book Title: Samaysara
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 158
________________ हिंसा का मूल क्या है ? मैं प्रवचन करने के लिये प्रवचन हॉल में आया। मैंने बहुत लोगों को देखा, उनकी प्रवृत्तियों को देखा। कोई रूमाल संभाल रहा था, कोई कापी-पेन को संभाल रहा था। मेरे मन में प्रश्न उठा - इसका कारण क्या है ? करने वालों ने कारण पर ध्यान नहीं दिया। ये सब इतनी सहज प्रवृत्तियां हैं कि कारण पर ध्यान देने की जरूरत ही महसूस नहीं होती लेकिन इनके पीछे कोई कारण नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता। यदि हम विश्लेषण करें तो प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य मिलेगा। व्यक्ति मुंह पोंछने के लिए रूमाल संभाल रहा था । कापी और पेन संभाल रहा था प्रवचन में आने वाली नई बात को नोट करने के लिए । प्रत्येक प्रवृत्ति का कोई न कोई कारण अवश्य था । जितने आदमी हैं, जितनी प्रवृत्तियां हैं, उनके पीछे उतने ही कारण हैं। कारण का संबंध हमारी स्थूल प्रवृत्तियों के साथ कारण जुड़ा हुआ है। कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं, जिनके पीछे कोई कारण नहीं होता। जो सहज परिणमन होता है, उसके पीछे कोई कारण नहीं होता । अर्थ पर्याय के पीछे कोई कारण नहीं होता। जितने व्यक्त होने वाले पर्याय हैं, स्थूल पर्याय हैं, उनके पीछे कारण होता है। हम निरन्तर कारण की ओर ध्यान नहीं देते किन्तु कारण होता अवश्य है । अभ्यास इतना सध जाता है कि सहज भाव से सारा कार्य हो जाता है। यही होता है हमारा कंडीशनिंग माइंड । एक आदत बन जाती है और अपने आप काम होता चला जाता है किन्तु यदि हम उसके कारण पर विचार करें तो कारण उपलब्ध हो सकता है। हिंसा का कारण इस कार्य कारण सिद्धान्त के आधार पर जब हम हिंसा, अनैतिकता, अप्रमाणिकता, असत्य आदि -आदि आचरणों और व्यवहारों पर विचार करते हैं तो कुछ नई बातें सामने आती है। हिंसा करने वाला कभी कारण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

Loading...

Page Navigation
1 ... 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178