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सामायिक हमारे चौबीसों घंटोपर असर करने लगती है। यह समताभाव हमारे नित्य प्रतिके व्यवहार में उतरने लगता है। हमारा जीवन बदलने लगता है । एक धार्मिक क्रांति घटित होने लगती है, और सामायिक का सही उददेश साध्य होने लगता है। प्रश्न ३ - इस नए सामायिक की विधि मे लोगरस और नमोत्थुणं ये दोनो अतिमहत्व की पाटियाँ कैसे नही? उत्तर - लोगस्स और नमोत्थुणं ये दोनो पाटियोंके बारे मे हमारे मन मे नितांत श्रध्दा है,क्योकिं उसमे चौबीस तीर्थकरोकी तथा नमोत्थुणंमे अरिहंतो की स्तुति की है । ये एक प्रकारकी प्रार्थनाएँ हैं । सामायिक एक ध्यान है । एक विशिष्ट समता का ध्यान | ध्यान मे प्रार्थना या स्तुति करना हमे उचित नही लगता । प्रार्थना किसी और वक्त जरूर कर सकते हैं पर ध्यान में नही । कहते है ध्यान करना और करते है स्तुति या प्रार्थना, तो उचित नही लगता। फिरभी कोई अति श्रध्दासे सामायिक के पहले, या अंत मे पूर्ण अर्थ समझकर कहे तो अच्छा ही है |वास्तविक सामायिकका ध्येय ही तो अरिहंत बनना है। वे ही तो हमारे
आदर्श है। और उनके मार्गदर्शनसे ही तो हमे यह सामायिका का व्रत मिला है। इसलिए तो हम सामायिक के शुरू में और अंत मे नवकार मंत्र कहकर हम उन्हे भावभीनी वंदना देते है।
सामायिक मे बारबार पाटिया दोहराने मे वक्त जाया न करते हमने अधिकाधिक समय अत्यंत महत्वपूर्ण क्रियाएँ कायोत्सर्ग और धर्मध्यान के लिए दिया है। यह सही तरीके से करने से ही अरिहंत सही मानोंमे प्रसन्न होंगे उसका असर उनकी स्तुति पाठसे भी अधिक होगा। अगर दो शिष्य है - एक गुरू के सदा गुण गाता रहता है दूसरा गुरू के प्रति पूर्ण श्रध्दा मनमे लिए हुए गुरू के बनाए हुए मार्गपर