Book Title: Samatva Yoga aur Anya Yoga Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 4
________________ उपसर्गपूर्वक अय् धातु से बना है। अय् धातु के तीन अर्थ हैं - ज्ञान, गमन और प्रापण । ज्ञान शब्द विवेक-बुद्धि का, गमन शब्द आचरण या क्रिया का और प्रापण शब्द प्राप्ति या उपलब्ध द्योतक है। सम् उपसर्ग उनकी सम्यक् या उचितता का बोध कराता है । सम्यक् की प्राप्ति ही सम्यक्त्व या सम्यक्दर्शन है । कुछ विचारकों के अनुसार सम्यक् - क्रियाविधि - पक्ष में सम्यक्चारित्र और भावपक्ष में सम्यग्दर्शन (श्रद्धा) है। दूसरे कुछ विचारकों की दृष्टि में सम्यक् - ज्ञान शब्द में दर्शन भी अन्तर्निहित है। सम् का एक अर्थ रागद्वेष से अतीत अवस्था भी है और अय् धातु का प्रापण या प्राप्तिपरक अर्थ लेने पर उसका अर्थ होगा-राग-द्वेष से अतीत अवस्था की प्राप्ति, जो प्रकारान्तर से मुक्ति का सूचक है। इस प्रकार, सामायिक (समत्वयोग) शब्द एक ओर सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र - रूप त्रिविध साधना - पथ को अपने में समाहित किए हुए है, तो दूसरी ओर इस त्रिविध साधना-पथ के साध्य (मुक्ति) से भी समन्वित है । - 1. आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनिर्युक्ति में सामायिक के तीन प्रकार बताए हैं सम्यक्त्व - सामायिक, 2. श्रुत - सामायिक और 3. चारित्र - सामायिक | चारित्र - सामायिक के श्रमण और गृहस्थ-साधकों के आचार के आधार पर दो भेद किए हैं।' सम्यक्त्व - सामायिक का अर्थ सम्यग्दर्शन, श्रुत-सामायिक का अर्थ सम्यग्ज्ञान और चारित्र - सामायिक का अर्थ सम्यक्चारित्र है। इन्हें आधुनिक मनोवैज्ञानिक भाषा में चित्तवृत्ति का समत्व, बुद्धि का समत्व और आचरण का समत्व कह सकते हैं। इस प्रकार, जैन- विचार का साधना - पथ वस्तुतः समत्वयोग की साधना ही है, जो मानव - चेतना के तीन पक्ष-भाव, ज्ञान और संकल्प के आधार पर त्रिविध बन गया है । भाव, ज्ञान और संकल्प को सम बनाने का प्रयास ही समत्व - योग की साधना है । जैन - दर्शन में विषमता (दुःख) का कारण समत्व - यदि हम यह कहें कि जैनधर्म के अनुसार जीवन का साध्य समत्व का संस्थापन है, -योग की साधना है, तो सबसे पहले हमें यह जान लेना है कि समत्व से च्युति का कारण क्या है ? जैन-दर्शन में मोहजनित आसक्ति ही आत्मा के अपने स्वकेन्द्र से च्युति का कारण है। आचार्य कुन्दकुन्द का कथन है कि मोह-क्षोभ से रहित आत्मा की अवस्था सम है', अर्थात् मोह और क्षोभ से युक्त चेतना या आत्मा की अवस्था ही विषमता है। पंडित सुखलालजी का कथन है कि शारीरिक एवं प्राणमय जीवन के अभ्यास के कारण चेतन अपने सहज समत्व - केन्द्र परित्याग करता है । वह जैसे-जैसे अन्य पदार्थों में रस लेता है, वैसे-वैसे जीवनोपयोगी अन्य पदार्थों में अपने अस्तित्व (ममत्व) का आरोपण करने लगता है। यह उसका स्वयं अपने बारे में मोह या अज्ञान है । यह अज्ञान ही उसे समत्व - केन्द्र में से च्युत करके इतर परिमित वस्तुओं में रस लेने वाला बना देता है। यह रस (आसक्ति) ही रागद्वेष जैसे क्लेशों का प्रेरक तत्त्व है। इस तरह, चित्त का वृत्तिचक्र अज्ञान एवं क्लेशों के आवरण से इतना अधिक आवृत्त एवं अवरुद्ध हो जाता है कि उसके कारण जीवन प्रवाह - पतित ही बना रहता है - अज्ञान, अविद्या अथवा मोह, जिसे समत्वयोग और अन्य योग 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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