Book Title: Samatva Yoga aur Anya Yoga
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 10
________________ होगी। यहाँ योग की व्याख्या होगी 'योगः कर्मसु कौशलम्', यहाँ योग युक्ति है, उपाय है, जिसके द्वारा व्यक्ति वातावरण में निहित अपने भौतिक लक्ष्य की प्राप्ति करता है। यह योग का व्यावहारिक-पक्ष है, जिसमें जीवन के व्यावहारिक-स्तर पर समायोजन किया जाता है। वस्तुतः, मनुष्य न निरी आध्यात्मिक-सत्ता है और न निरी भौतिक-सत्ता है, उसमें शरीर के रूप में भौतिकता है और चेतना के रूप में आध्यात्मिकता है। यह भी सही है कि मनुष्य ही जगत् में एक ऐसा प्राणी है, जिसमें जड़ पर चेतन के शासन का सर्वाधिक विकास हुआ है। फिर भी, मानवीय-चेतना को जिस भौतिक आवरण में रहना पड़ रहा है, वह उसकी नितांत अवहेलना नहीं कर सकती। यही कारण है कि मानवीय-चेतना को दो स्तरों पर समायोजन करना होता है -1. चैतसिक (आध्यात्मिक) स्तर पर और 2. भौतिक स्तर पर। गीताकार द्वारा प्रस्तुत योग की उपर्युक्त दो व्याख्याएँ क्रमशः इन दो स्तरों के सन्दर्भ में है। वैचारिक या चैत्तसिक-स्तर पर जिस योग की साधना व्यक्ति को करनी है, वह समत्वयोग है। भौतिक-स्तर पर जिस योग की साधना का उपदेश गीता में है, वह कर्म-कौशल का योग है। तिलक ने गीता और अन्य ग्रन्थों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि योग शब्द का अर्थ युक्ति, उपाय और साधन भी है। चाहे हम योग शब्द का अर्थ जोड़ने वाले स्वीकारें या तिलक के अनुसार युक्ति या उपाय मानें", दोनों ही स्थितियों में योग शब्द साधन के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है, लेकिन योगशब्द केवल साधन के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है। जब हम योग शब्द का अर्थ मनःस्थिरता करते हैं, तो वह साधन के रूप में नहीं होता है, वरन् वह स्वतः साध्य ही होता है। यह मानना भ्रमपूर्ण होगा कि गीता में चित्त-समाधि या समत्व के अर्थ में योगशब्द का प्रयोग नहीं है। स्वयं तिलकजी ही लिखते हैं कि गीता में योग, योगी, अथवा योग शब्द से बने हुए सामासिक-शब्द लगभग अस्सी बार आए हैं, परन्तु चार पाँच स्थानों के सिवा (6/12-23) योग शब्द से पातंजल योग' (योगश्चित्तवृत्ति निरोधः) अर्थ कहीं भी अभिप्रेत नहीं है - सिर्फ युक्ति, साधन, कुशलता, उपाय, जोड़, मेल, यही अर्थ कुछ हेर-फेर से समूची गीता में पाए जाते हैं। इससे इतना तो सिद्ध हो ही जाता है कि गीता में योग शब्द मन की स्थिरता या समत्व के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है, साथ ही यह भी सिद्ध हो जाता है कि गीता दो अर्थों में योगशब्द का उपयोग करती है, एक साधन के अर्थ में, दूसरे, साध्य के अर्थ में। जब गीता योगशब्द की व्याख्या 'योगः कर्मसु कौशलम्' के अर्थ में करती है, तो यह साधन-योग की व्याख्या है। वस्तुतः, हमारे भौतिक-स्तर पर अथवा चेतना और भौतिक जगत् (व्यक्ति और वातावरण) के मध्य जिस समायोजन की आवश्यकता है, वहाँ पर योग शब्द का यही अर्थ विवक्षित है। तिलक भी लिखते हैं, एक ही कर्म को करने के अनेक योग या उपाय हो सकते हैं, परन्तु उनमें से जो उपाय या साधन उत्तम हो, उसी को योग कहते हैं। योगः कर्मसु कौशलम् की व्याख्या भी यही कहती है कि कर्म में कुशलता योग है। किसी क्रिया या कर्म को कुशलतापूर्वक सम्पादित करना योग है। इस समत्वयोग और अन्य योग : 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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