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(vogavinsika) में योग के निम्न 5 भेद बतायें हैं। 1. स्थानयोग अर्थात् आसन का अभ्यास (practice of proper posture) 2. उर्णयोग अर्थात् ध्वनि का सही उच्चारण (correct uttarence of
sound)
अर्थयोग - धार्मिक योग ग्रन्थों के अर्थ को सही रूप में समझाना (proper understanding of the meaning of canonical work)
आलम्बनयोग - किसी विशिष्ट लक्ष्य जैसे जिनप्रतिमा आदि पर मन की एकाग्रता (concentration of mind on a object as jina image etc.) इस अवस्था में जिन के या आत्मा के अमूर्त गुणों (abstract qualities of jina or self) के चिन्तन में चित्तवृत्ति की एकाग्रता (concentration of thought) होती है।
अनालम्बनयोग - इस पाँचवी स्थिति को आत्मा या मन की विचारहीन अवस्था (thoughtless state of the self) या निर्विकल्पदशा भी कहा जा सकता हैं।
योग के इन पाँच भेदों मे से प्रथम दो योग साधना के बाह्य पक्ष से जुड़े हुए है और अंतिम तीन योग साधना के आंतरिक पक्ष से, दूसरे शब्दों में प्रथम दो योग कर्म-योग हैं और अंतिम तीन योग ज्ञान-योग हैं। हरिभद्र ने अपने योगबिन्दु नामक ग्रन्थ में योग के अन्य 5 भेदों का वर्णन किया है
आध्यात्मिक जीवन दृष्टि (spiritual vision) या आध्यात्मयोग वैचारिक एकाग्रता (couter ptation) या भावनायोग
चित्तवृत्ति की एकाग्रता या ध्यानयोग 4. मानसिक समत्व (mental equaminity) समतायोग
मन, वाणी और काया की समस्त क्रियाओं का निरोध (ceasetion of all the activities of mind, speech and body) अर्थात् वृत्ति-संक्षययोग किन्तु हरिभद्र ने अपने 'योगदृष्टिसमुच्चय' में योग के केवल तीन भेद बताएँ है1. आत्मानुभूति या योग साधना के लिए इच्छा (illingness for self reali_zation or yogic sadhna) अर्थात् इच्छायोग 2. आध्यात्मिक आदेशों का अनुसरण (the followup of the spritual or
ders) अर्थात् शास्त्रयोग 3. आत्मा की आध्यात्मिक शक्तियों का विकास और आध्यात्मिक आन्तरिक
1.
30: समत्वयोग और अन्य योग
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