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ऊर्जा की संप्रप्ति (development of ones spiritual powers and inhilation of spiritual inertia) अर्थात् सामर्थ्ययोग
हरिभद्र के “योगदृष्टिसमुच्चय" में प्रतिपादित योग के इन तीन प्रारूपों की जैनियों के त्रिरत्न (three jwels) के साथ तुलना भी की जा सकती है, अर्थात् सम्यक्-दर्शन (right vision), सम्यक-ज्ञान (right knowledge) और सम्यक–चारित्र (right conduct). क्योंकि ये त्रिरत्न जैनियों में मोक्षमार्ग या दूसरे शब्दों में मोक्ष के पथ है, इसलिये ये योग है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि योग के विभिन्न अंगों या सोपानों के सम्बन्ध में हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ में अनेक प्रकार के मन्तव्यों को प्रकट किया है, किन्तु एक बात उन्होंने सामान्य रूप से स्वीकार की है कि योग वह है जो मोक्ष से जोड़ दे। यहाँ हम हरिभद्र पर कुलार्णवतन्त्र तथा अन्य योग ग्रन्थों का प्रभाव देख सकते है, क्योंकि इन्होंने भी कुलयोगी का उल्लेख भी किया है, लेकिन सामान्यतः हरिभद्र ने भोगवादी तान्त्रिक साधना की आलोचना ही की है। इसकाल में हरिभद्र के बाद दो अन्य
जैन आचार्या हुए है- 1. शुभचन्द्र (11वी सदी) और 2. हेमचन्द्र (12वी सदी) जिनका अवदान जैन योग के क्षेत्र में महत्वपूर्ण है, लेकिन ये दोनों आचार्य हिन्दू-तन्त्र से बहुत अधिक प्रभावित (dominated) है। इनमें शुभचन्द्र दिगम्बर जैन परम्परा से संबद्ध है और उनका प्रसिद्ध योग सम्बन्धी ग्रन्थ "ज्ञानार्णव' के रूप में जाना जाता है। हेमचन्द्र श्वेताम्बर जैन परम्परा से संबद्ध है, और उनका उल्लेखनीय ग्रन्थ “योगशास्त्र के रूप में जाना जाता है। यौगिक साधना के लिये शुभचन्द्र ने मंगलकारी ध्यान (uspicious meditation) की पूर्व तैयारी (prerequisite of auspicious meditation) के लिये 4 प्रकार की भावनाएँ (विनत विसक अपतजनमे) बताई है1. मैत्री- सभी प्राणियों के साथ मित्रता का भाव (friendship with all
beings)
प्रमोद- दूसरों के गुणों की प्रंशसा की वृत्ति (appriciations of lee merits of others)
करूणा-अभावग्रस्त लोगों के प्रति सहानुभूति (sympathy towards
the needy persons) 4. माध्यस्थ-विरोधी जनों या अनैतिक आचरण करने वालों के प्रति समभाव (equanimity or indeference towar unruly) दृष्टव्य है कि ये
समत्वयोग और अन्य योग : 31
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