Book Title: Samatva Yoga aur Anya Yoga
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur

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Page 11
________________ व्याख्या से यह भी स्पष्ट है कि इसमें योग कर्म का एक साधन है, जो उसकी कुशलता में निहित है, अर्थात् योग कर्म के लिए है। गीता की योगशब्द की दूसरी व्याख्या समत्वं योग उच्यते' का सीधा अर्थ यही है कि समत्व को योग कहते हैं । यहाँ पर योग साधन नहीं, साध्य है। इस प्रकार, गीता योग शब्द की द्विविध व्याख्या प्रस्तुत करती है, एक साधन-योग की और दूसरी साध्य-योग की। इसका अर्थ यह भी है कि योग दो प्रकार का है- 1. साधन-योग और 2. साध्य-योग। गीता जब ज्ञानयोग, कर्मयोग या भक्तियोग का विवेचन करती है, तो ये उसकी साधन-योग की व्याख्याएँ हैं। साधन अनेक हो सकते हैं, ज्ञान, कर्म और भक्ति-सभी साधन-योग है, साध्ययोग नहीं, लेकिन समत्वयोग साध्य-योग है। यह प्रश्न फिर भी उठाया जा सकता है कि समत्वयोग को ही साध्य-योग क्यों माना जाए, वह भी साधन-योग क्यों नहीं हो सकता है ? इसके लिए हमारे तर्क इस प्रकार हैं 1. ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी समत्व' के लिए होते हैं, क्योंकि यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या ध्यान स्वयं साध्य होते, तो इनकी यथार्थता या शुभत्व स्वयं इनमें ही निहित होता, लेकिन गीता यह बताती है कि बिना समत्व के ज्ञान, यथार्थ ज्ञान नहीं बनता, जो समत्वदृष्टि रखता है, वही ज्ञानी है 3, बिना समत्व के कर्म अकर्म नहीं बनता। समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व बना रहता है, लेकिन जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व से युक्त होता है, उसके लिए कर्म बन्धक नहीं बनते । इसी प्रकार, वह भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है, जिसमें समत्व का अभाव है, समत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है । समत्व के आदर्श से युक्त होने पर ही ज्ञान, कर्म और भक्ति अपनी यथार्थता को पाते हैं। समत्व वह 'सार' है, जिसकी उपस्थिति में ज्ञान, कर्म और भक्ति का कोई मूल्य या अर्थ ह। वस्तुतः, ज्ञान, कर्म और भक्ति जब तक समत्व से युक्त नहीं होते हैं, उनमें समत्व की अवधारणा नहीं होती है, तब तक ज्ञान मात्र ज्ञान रहता है, वह ज्ञानयोग नहीं होता, कर्म मात्र कर्म रहता है, कर्मयोग नहीं बनता और भक्ति भी मात्र श्रद्धा या भक्ति ही रहती है, वह भक्तियोग नहीं बनती है, क्योंकि इन सबमें हममें निहित परमात्मा से जोड़ने की सामर्थ्य नहीं आती। 'समत्व' ही वह शक्ति है, जिससे ज्ञान ज्ञानयोग के रूप में, भक्ति भक्तियोग के रूप में और कर्म कर्मयोग के रूप में बदल जाता है। जैन-परम्परा में भी ज्ञान, दर्शन (श्रद्धा) और चारित्र (कर्म) जब तक समत्व से युक्त नहीं होते, सम्यक् नहीं बनते और जब तक ये सम्यक् नहीं बनते, तब तक मोक्षमार्ग के अंग नहीं होते हैं। 2. गीता के अनुसार, मानव का साध्य परमात्मा की प्राप्ति है और गीता का परमात्मा या ब्रह्म सम' है"। जिनका मन ‘समभाव' में स्थित है, वे तो संसार में रहते हुए भी मुक्त हैं, क्योंकि ब्रह्म भी निर्दोष एवं सम है। वे उसी समत्व में स्थित हैं, जो ब्रह्म है और इसलिए वे ब्रह्म में ही हैं।" इसे स्पष्ट रूप में यों कह सकते हैं कि जो ‘समत्व' में स्थित हैं, वे ब्रह्म में स्थित हैं, क्योंकि 'सम' 10 : समत्वयोग और अन्य योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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