Book Title: Saman suttam Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan View full book textPage 5
________________ इस मार्ग पर अग्रसर मानव की दृष्टि समता-रन मे इतनी सहज, सूक्ष्म और तरल ( फ्लेक्सिबल) हो जाती है कि सारे सघर्ष, सामरस्य, आनन्द और सौदर्य में लीन हो जाते हैं और जीवन को विकृत करनेवाले सारे मतवाद और संघर्ष अर्थशून्य हो जाते है । जैन-धर्म का अनेकान्तवाद या स्याद्वाद इसीका निदर्शक है जो न केवल परमत-सहिष्णुता ही जगाता है, परम्पर विरोधी विचारो में समन्वय भी स्थापित करता है । 'समणसुत्त' ग्रन्थ की निष्पत्ति के पीछे भगवान् महावीर की अव्यक्त और सन्त विनोबाजी की पावन व्यक्त प्रेरणा रही है । यह अपने में अपूर्व ऐतिहासिक घटना है कि भगवान् महावीर के २५ सौवे निर्वाण महोत्सव के वर्ष मे दिल्ली में इस ग्रन्थ की सर्वमान्यता के लिए संगीति का आयोजन हो सका । सगीति में सम्मिलित साधुओ, विद्वानो, श्रावको तथा सेवको ने हर प्रकार से अपना हार्दिक सहयोग देकर इसे सर्व मान्यता प्रदान की । जैनधर्म के सभी सम्प्रदायों के मुनियो तथा श्रावको का यह सम्मिलन विगत दो हजार वर्षो के पञ्चात् पहली बार देखने में आया । दिल्ली की इस ऐतिहासिक एव समन्वयात्मक संगीति का अधिवेशन दो दिन तक चार बैठको में सम्पन्न हुआ । चारो बैठको की अध्यक्षता चारो आम्नायो के मुनि श्री सुशीलकुमारजी, मुनि श्री नथमलजी, मुनि श्री जनकविजयजी तथा उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी ने की। चारो वैठको को आचार्य श्री तुलसीजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी, आचार्य विजयसमुद्रसूरिजी एव आचार्य देशभूषणजी के आशीर्वाद प्राप्त हुए । ग्रथ का अतिम प्रारूप सगीति के चारो अध्यक्ष और जिनेन्द्र वर्णीजी ने तैयार किया जिसमें शुरू से अंत तक आचार्य तुलसीजी का सहयोग रहा । इस ग्रंथ का प्रारम्भिक सकलन ब्र० जिनेन्द्र वर्णीजी ने किया है । सर्वप्रथम एक सकलन 'जैनधर्मसार' नाम से प्रकाशित किया गया। बाद में अनेक सुझावो और सशोधनो को ध्यान में रखकर दूसरा सकलन प० दलसुखभाई मालवणिया ने किया। सन्त कानजी स्वामी की प्रेरणा से डा० हुकुमचन्दजी मारिल्ल ने सकलन के लिए काफी उपयुक्त गाथाएँ सुझायी । उदयपुर के डा० कमलचन्दजी सोगानी ने गहराई से अध्ययन करके अनेक सुझाव दिये । सबका अवलोकन करके श्री वर्णीजी ने तीसरा सकलन तैयार किया जो 'जिणधम्म' नाम से संगीति में विचारार्थ रखा गया। अब जो सकलन प्रकाशित हो रहा हैं, वह अतिम एव सर्वमान्य है । इस सकलन को परिपूर्ण तथा परिमार्जित बनाने में प० दलसुखभाई मालवणिया तथा मुनि श्री नथमलजी का विशेष हाथ रहा है । डा० ए० एन० उपाध्ये, डा० दरबारीलालजी कोठिया आदि विद्वानो का भी सहयोग मिला है । गाथाओ की शुद्धि मे प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, १० बेचरदासजी दोशी और मुनि नथमलजी के श्रम को भुलाया नही जा सकता। संस्कृत छाया का सशोधन और परिमार्जन प० बेचरदासजी ने एक-एक शब्द को जाँच-परखकर किया है। हिन्दी अनुवाद प० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री तथा मुनि श्री नथमलजी ने किया है। अनुवाद सरल मूलानुगामी है । Jain Education International चार - For Private Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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