Book Title: Saman suttam
Author(s): Kailashchandra Shastri, Nathmalmuni
Publisher: Sarva Seva Sangh Prakashan

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Page 17
________________ MKEJU SE KIEL EF DIEZIR IKE Jain Education International अहिंसा जैन - आचार का मूल अहिमा है । उस अहिमा का पालन अनेकान्तदृष्टि के बिना संभव नही है । क्योकि जैन दृष्टि से हिमा न करते हुए भी मनुष्य हिसक हो सकता है और हिंसा करते हुए भी हिसक नही होता । अत' जैनधर्म में हिंसा और अहिसा कर्ता के भावो पर अवलम्बित है, क्रिया पर नही । यदि बात होनेवाली हिमा को ही हिसा माना जाय तब तो कोई अहमक हो नही सकता क्योकि जगत् में सर्वत्र जीव है और उनका घात होता रहता है । इसलिए जो सावधानतापूर्वक प्रवृत्ति करता है उसके भावो मे अहिंसा है, अत वह अहिसक है और जो अपनी प्रवृत्ति में सावधान नही है उसके भावो मे हिमा है, अत: वह हिसा न करने पर भी हिसक होता है । यह सब विश्लेषण अनेकान्त - दृष्टि के बिना संभव नही है । अत. अनेकान्त-दृष्टि-सम्पन्न मनुष्य ही सम्यग्दृष्टि माना गया है और सम्यग्दृष्टि ही सम्यग्ज्ञानी और सम्यवचारित्रशील होता है । जिसकी दृष्टि सम्यक् नही है उसका ज्ञान भी सच्चा नही है और न आचार ही यथार्थ है । इसीस जैन-मार्ग में सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का विशेष महत्त्व है । वही मोक्षमार्ग की आधारशिला है । ससार एक बन्धन है । उस बन्धन मे जीव अनादिकाल से पड़ा है, इससे वह अपने यथार्थ स्वरूप को भूल उस बन्धन को ही अपना स्वरूप मानकर उसमे रम रहा है और उसकी यह भूल ही उसके इस वन्धन का मूल है । अपनी इस भूल पर दृष्टि पडते ही जब उसकी दृष्टि अपने स्वरूप की ओर जाती है कि चैतन्यशक्ति सम्पन्न हूँ और भौतिक ऊर्जा शक्ति से भी विशिष्ट शक्ति मेरा चैतन्य है जो अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तशक्ति का भण्डार है यह श्रद्धा जगते ही उसे सम्यग्दृष्टि प्राप्त होती है और तब वह सम्यक् आचार के द्वारा अपने यथार्थ स्वरूप में स्थिर होने का प्रयत्न करता है । अत: जैनधर्म का आचारमार्ग सम्यग्ज्ञानपूर्वक वीतरागता तक पहुँचने का राजमार्ग है । अनेकान्त वस्तुतः देखा जाय तो इस विशाल लोक में सदेह व्यक्ति का अधिक-सेafa ज्ञान भी सीमित, अपूर्ण और एकागी ही है । वह वस्तु के अनन्त - चौदह For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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