Book Title: Sagar Ke Javaharat
Author(s): Abhaysagar
Publisher: Jain Shwetambar Murtipujak Sangh

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Page 10
________________ हो इसी काल में भारत में कई सम्प्रदायों का उद्भव हुआ जिनके द्वारा मूर्ति पूजा का विरोध प्रारंभ किया गया । ईमी श्रंखला में संवत् 1542 में जॉभो जी द्वारा विश्नोई सम्प्रदाय सवत् 1636 में दादु जी द्वारा दादु पंथ, संवत् 1708 में लव जी द्वारा स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय, तारण-स्वामी द्वारा तारण पंथ (जैन दिगम्बर शाखा) विक्रम की 17 वीं शताब्दि के पुत्रधिं में कबीरपथ, नानक पंथ, सवत् 1817 में मेवाड़ के नगर भीलवाड़ा के पास सांगानेर से रामानुज (राम स्नेही सम्प्रदाय ) संवत 1817 ही में मेवाड़ ही के केलवा ग्राम से तेरापंथ जैन सम्प्रदाय एवं 100 साल से आर्य समाज आदि मत मतान्तरो का उद्भव हुआ एवं मूर्तिपूजा के विरोध की लहर चलने लगी । जैनाचार्यों के उपदेश का आधार था कि :बिम्बा फलोन्नति यवोन्नति मेवभक्त्या येकार यन्तिजिन सद्भजिना कृतिवा, पूण्य नदीय मिह वागपिने वशक्ता स्तोत परस्य किमुकारयितु देवस्य " अर्थात बिम्बफल के बराबर मन्दिर बनाकर उसमें जौ के दाने के समान प्रतिमा स्थापित करने वाले गृहस्थ के पुण्य का वर्णन नहीं हो सकता । ऐसी अवस्था में मूर्तिपूजा विरोधी लहरने समस्त जैन समाज में प्रतिरक्षा स्वरूप हलचल पैदा कर दी । पूज्य श्री जवेरसागर जी महाराज की जीवन गाथा इस हलचल का ज्वलंत उदाहरण है । महाराज श्री का विचरण इस ध्येयकी पूर्ति की और एक ठोस कदम रहा हैं । महाराज श्री का वि. सं. 1929 एवं 1930 में रतलाम में चातुर्मास एवं कानोड़, चित्तौड़गढ़, अजमेर, कोटा, रामपुरा, झालावाड़, पाटन, भीलवाडा का विचरण मुख्यतया इसी

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